हैदराबादः यूपी की सियासी जमीन से इस बार भी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के सूखे हैंडपंप को पानी की आस है. इस बार रालोद की उम्मीद बने हैं सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव. रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को उम्मीद है कि ये सियासी यराना कोई न कोई चमत्कार जरूर दिखाएगा. इसी के चलते इस सप्ताह ही दोनों ही दलों ने संयुक्त रूप से 29 प्रत्याशियों की सूची भी जारी की है. इनमें 10 सपा के और 19 रालोद के उम्मीदवार है. अभी कई सीटों पर और प्रत्याशी घोषित किए जाने हैं. चलिए जानते हैं जाट लैंड यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कभी दिग्गज पार्टी रही रालोद का सूरज आखिर क्यों और किस वजह से ढला.
रालोद का इतिहास काफी पुराना है. किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस मंत्रिमण्डल से इस्तीफा देकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी. 1974 में उन्होंने इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया था. फिर कई विलय और पार्टी के नाम बदलाव के बाद रालोद के सफर की शुरुआत 1998 में हुई, जब चौधरी चरण सिंह की विचारधारा पर चलने वाले इस दल का नाम उनके पुत्र चौ. अजित सिंह ने बदलकर राष्ट्रीय लोकदल कर दिया.
इन जिलों में कभी था जनाधार
मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर, गौतमबुद्धनगर, बागपत, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, आगरा, अलीगढ़, मथुरा, फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, बरेली, बदायूं, पीलीभीत और शाहजहांपुर जैसे जिलों में कभी रालोद का डंका बजता था. अब यह प्रभाव काफी घट गया है.
चौधरी चरण सिंह के संग मुलायम सिंह यादव ने की थी शुरुआत
मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत ही चौधरी चरण सिंह के साथ की थी. 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से चुनाव जीतने के बाद 1969 में वह चौधरी चरण सिंह से जुड़ गए थे. चौधरी चरण सिंह ने जब लोकदल का गठन किया तो मुलायम सिंह यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई. 1987-88 में जनता दल के गठन के बाद मुलायम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली. इसमें चौधरी अजित सिंह भी साथ थे.
किसानों के मुद्दे और जाट आरक्षण की मांग उठाई