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यूपी में 'लाल सलाम का काम तमाम', फिर भी ताल ठोकने में पीछे नहीं वामपंथी

भले ही यूपी की सियासत में कम्युनिस्ट पार्टी को कोई पूछने वाला न हो, लेकिन किस्मत आजमाने में यह पार्टी अभी भी पीछे नहीं हट रही हैं. इस बार भी सभी वामपंथी दल मिलकर लगभग 60 सीटों पर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं.

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Published : Feb 6, 2022, 1:32 PM IST

लखनऊ:कभी उत्तर प्रदेश में भी वामपंथी दलों के विधायक और मंत्री हुआ करते थे, लेकिन धीरे-धीरे क्षेत्रीय पार्टियां हावी होती गईं और वामपंथी दलों का बोरिया बिस्तर बंधता गया. अब उत्तर प्रदेश की सियासत में कम्युनिस्ट पार्टियों का भविष्य पूरी तरह से गर्त में ही है. हालांकि प्रदेश में इन पार्टियों के नेताओं की हिम्मत की भी दाद देनी होगी, लाख बिखर जाने के बाद अभी भी चुनावी मैदान में ताल ठोकने से परहेज नहीं कर रहे हैं. इस बार भी करीब पांच दर्जन प्रत्याशी मैदान में किस्मत आजमा रहे हैं.

भले ही यूपी की सियासत में कम्युनिस्ट पार्टी को कोई पूछने वाला न हो, लेकिन किस्मत आजमाने में यह पार्टी अभी भी पीछे नहीं हट रही हैं. इस बार भी सभी वामपंथी दल मिलकर लगभग 60 सीटों पर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं. इन पार्टियों में सीपीआई, सीपीआईएम, फॉरवर्ड ब्लॉक और लोकतांत्रिक जनता दल शामिल हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए क्षेत्र में उत्तरी हैं. हालांकि उनकी सफलता की कोई गारंटी नहीं है. इसकी वजह यह है कि पार्टियों के पास जुझारू कार्यकर्ता नहीं बचे हैं.

ताल ठोकने में पीछे नहीं वामपंथी

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नए सदस्य काफी कम संख्या में ही जुड़ रहे हैं. पुराने लोग अब सड़कों पर उतरने के बजाय घर पर ही रह रहे हैं. जनता से संपर्क लगभग टूट सा गया है इसीलिए लाल सलाम का उत्तर प्रदेश में लगभग काम तमाम हो चुका है. फिर भी पार्टी के नेता यह मानते हैं कि किसान और मजदूर वर्ग वामपंथी दलों के साथ ही खड़ा है. हम मजदूरों की बात करते हैं और अन्य पार्टियां जमीदारों की. 1957 में पहली बार उत्तर प्रदेश की जमीन पर लाल झंडा फहराया था. तब विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक सीट जीती थी. वह सीट वाराणसी की कोलअसला विधानसभा सीट थी.

इस जीत के बाद पूर्वांचल में वामपंथ यूपी की राजनीति का केंद्र बन गया है. पांच साल बाद 1962 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 14 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 1967 के चुनाव में भाजपा ने 13 सीटें जीतीं. 1974 के चुनाव में पार्टी की सीटों की संख्या 16 हो गई थी. साल 2002 में इलाहाबाद से रामकृपाल और आजमगढ़ से राम जगराम ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए आखिरी बार विधानसभा चुनाव जीता था. तब से लेकर अब तक 20 साल हो चुके हैं लेकिन वामपंथियों का खाता नहीं खुल पाया है.

ताल ठोकने में पीछे नहीं वामपंथी

यह है वामपंथी दलों का संगठन

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रदेश के लगभग 65 जिलों में संगठन है लेकिन सभी इकाइयां संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं, सिर्फ 54 जिलों में पार्टी के कार्यालय हैं. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव हीरालाल यादव बताते हैं कि सीपीएम का संगठन 50 जिलों में है सभी जिलों में कमेटियां है. इनका प्रभाव उत्तर प्रदेश के 57 जिलों में है.

मंडल-कमंडल में निपट गए वामपंथी दल

साल 1990 के दशक में जातीय राजनीति और राम मंदिर आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में दिखने लगा था. कम्युनिस्ट पार्टियां किसान एकता, मजदूर एकता, कर्मचारी एकता की बात करती रहीं, लेकिन यह वर्ग मंडल कमंडल की राजनीति के बाद वामपंथी दलों से छिटक गया. इसके बाद उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टियों के वोट बैंक का भी सफाया होने लगा. धीरे-धीरे इसमें गिरावट आने लगी और अब स्थिति यह है कि कहीं पर भी 403 विधानसभा सीटों में एक भी विधायक बनाने में 20 साल से पार्टी को सफलता नहीं मिल पाई है.

प्रदेश भाकपा कार्यालय

इन सीटों से सीपीआई ने उतारे प्रत्याशी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बात करें तो मुरादाबाद नगर, छाता, बिधरी चैनपुर, बीसलपुर, लखीमपुर, हरदोई, सरोजिनी नगर, दिबियापुर, महरौनी, हमीरपुर, तिंदवारी, चित्रकूट, विश्वनाथ गंज, बारा, अयोध्या, नानपारा, तुलसीपुर, महाराजगंज, कैंपियरगंज, पिपराइच, फाजिलनगर, रामपुर कारखाना, निजामाबाद, मेहनगर, मुरादाबाद, गोहना, मऊ, बांसडीह, जखनिया, जंगीपुर, पिंडरा, रॉवर्टसगंज सीटों से चुनाव मैदान में हैं.

इतनी सीटों पर इतने प्रत्याशी

सीपीआई 40 सीट पर, सीपीआईएमएल 11 सीट पर, भाकपा (माले) चार सीट पर, फारवर्ड ब्लाक तीन सीट पर और लोकतांत्रिक जनता दल एक सीट पर प्रत्याशी उतार रहा है.

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