लखनऊ:कांग्रेस पार्टी पिछले तीन दशकों से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में पार्टी ने गठबंधन के सहारे जीतने की कोशिश की, मगर वह नाकाम साबित हुई. इन अनुभवों के आधार पर कांग्रेस कई प्रयोग कर रही है. पहला, प्रियंका गांधी मंदिरों में जाकर सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर मुड़ने का संकेत दे रहीं है. दूसरा, मुसलमानों को भी अपने पाले में लाने का प्रयास किए जा रहे हैं. अब सबसे अधिक फोकस अब अपने तीन दशक पुराने परंपरागत वोटर ब्राह्मण समुदाय से समर्थन लेने पर है. इस कड़ी में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी किसी सवर्ण नेता के खाते में जाने की चर्चा की जा रही है. साथ ही मुख्यमंत्री के लिए किसी ब्राह्मण चेहरे को यूपी के सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट करने की अटकलें भी लगाई जा रही है. फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष की रेस में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रमोद तिवारी, आचार्य प्रमोद कृष्णम और आरपीएन सिंह शामिल हैं.
उत्तर प्रदेश में करीब 12 फीसदी है ब्राह्मणों की आबादी
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या तकरीबन 12 फीसद है. पिछले तीन विधानसभा चुनाव में इस वोट बैंक ने जिस दल को समर्थन दिया, उसे लखनऊ में सत्ता मिली. इसलिए सभी पार्टियां ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने में जुट गई हैं. 80 के दशक तक बाबरी मस्जिद विवाद से पहले लगातार ब्राह्मण मतदाता सिर्फ कांग्रेस पार्टी को ही अपनी पार्टी मानते थे. 1986 में विवादित स्थल पर राम मंदिर का ताला खुला, तो प्रदेश में हिंदुत्व की राजनीति का दबदबा बढ़ने लगा. जब भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर के लिए मुखर हुई तो ब्राह्मण उसकी ओर आकर्षित हुए. इसके बाद सवर्ण धीरे-धीरे बीजेपी के करीब और कांग्रेस से दूर होते गए.
किसी एक पार्टी का होकर नहीं रहा ब्राह्मण
तीन दशक पहले तक जहां ब्राह्मण सिर्फ कांग्रेस को ही अपनी पार्टी मानते थे लेकिन इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया. साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा को आगे कर एक बड़ा दांव खेला. सोशल इंजीनियरिंग का यह फार्मूला पूरी तरह से फिट बैठा और ब्राह्मणों ने प्रचंड बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर मायावती को बैठा दिया. साल 2012 आते-आते बसपा के सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकल गई. ब्राह्मणों ने 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का रुख कर लिया. 2012 में सपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई. इसके बाद एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की बारी आई. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की ऐसी आंधी चली कि ब्राह्मण बीजेपी से जुड़ गए. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मणों का आशीर्वाद मिला और बीजेपी ने प्रचंड बहुमत हासिल कर सत्ता का स्वाद चखा.
आखिर कांग्रेस को क्यों है ब्राह्मण चेहरे की जरूरत
कांग्रेस ने ब्राह्मणों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए जितिन प्रसाद को आगे किया था. जितिन प्रसाद ने ब्राह्मण एकता परिषद का गठन कर भाजपा से नाराज ब्राह्मणों को कांग्रेस के पाले में लाने की कवायद शुरू की थी. उनकी ब्राह्मण एकता परिषद से लोगों का जुड़ाव भी होने लगा था. इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने जितिन प्रसाद को अपने पाले में मिला लिया. इससे कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फिर गया. बीजेपी अब जितिन प्रसाद को ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश कर रही है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी सवर्ण हैं और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी हैं. ऐसे में भाजपा ने इन सभी वर्गों को सरकार और संगठन में प्रतिनिधित्व दिया है. ऐसे में कांग्रेस किसी सवर्ण चेहरे को सामने लाकर बीजेपी की रणनीति को तोड़ने का फैसला लिया है. इसके अलावा कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को लेकर भी संगठन में नाराजगी है. पार्टी के प्रदेश सचिव रह चुके सुनील राय इसकी शिकायत राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी से कर चुके है. सवर्ण चेहरा कांग्रेस को एक साथ कई निशाने साधने में मददगार साबित हो सकता है.
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