लखनऊ : कोई व्यक्ति एक पक्ष को लेकर ही चल पाता है. अच्छा लेखक होता है वो अच्छा वक्ता नहीं हो पाता है, या कोई अच्छा कलाकार है तो अच्छा वक्ता या लेखक हो यह जरूरी नहीं, लेकिन भारतेंदु हरिश्चंद्र इन सभी क्षेत्रों में पारंगत थे. इसके बावजूद राष्ट्रभक्ति की भावना, मातृभूमि और अपनी मातृ भाषा के प्रति एक लगाव हो, यह दुर्लभ ही देखने को मिलता है. अभिनय और रंगमंच के प्रशिक्षण की बात आती है तो सबसे पहले नेशनल ड्राॅमा स्कूल का नाम आता है और उसके बाद भारतेन्दु नाट्य अकादमी का जिक्र होता है. वह अकादमी जो पूरे देश के रंगकर्मियों के लिए तीर्थ सरीखी है. उनकी जयंती पर शहर के नाटककारों और रंगकर्मियों ने उन्हें याद किया.
लखनऊ विवि के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार सूर्य प्रसाद दीक्षित ने बताया कि 'भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने जीवनकाल में सिर्फ हिंदी को बढ़ाने का काम किया. उन्होंने अपनी लेखनी में अंग्रेजों का पुरजोर विरोध किया. उन्होंने अपने लेखों में आजाद भारत का संदेश दिया, अंग्रेजों की डिवाइड एंड रूल पॉलिसी की खूब धज्जियां उड़ाईं. उसके अलावा उन्होंने पुरुष और स्त्री की समानता का पक्ष लिया. करीब 1882 के करीब उन्होंने लखनऊ और उसके आस पास के इलाकों की यात्रा की, जिसका जिक्र उन्होंने अपने लेख में किया है. इस यात्रा में उन्होंने नवाबों के रहन-सहन पर तंज कसने के साथ उनका उपहास किया. उन्होंने नवाबों को आराम परस्त कहते हुए उनकी कार्य की आलोचना की.'
भारतेंदु हरिश्चंद्र से हर युवा प्रेरणा ले :पद्मश्री विद्या बिंदु सिंह ने बताया कि 'भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी नाटकों में अमूल्य योगदान दिया है. उनके व्यक्तित्व को पढ़कर ही हमें बहुत प्रेरणा मिली है. उनके बारे कहा जाता था कि वो तेज याददाश्त और स्वतंत्र सोच रखते थे. भारत की आधुनिक हिन्दी का पूरा एक युग उनके नाम पर है, जिसे भारतेन्दु युग के नाम पर जाना जाता है. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी को नई चाल व ढाल देने का काम भी किया. हिंदी की साहित्यिक परंपरा को बचाने के लिए रंगमंच, आंदोलन, सभाओं से लेकर डिबेटिंग क्लब, अनाथरक्षिणी तदीय समाज, काव्य समाज और पेनीरीडिंग समाज जैसी संस्थाएं स्थापित कीं. युवाओं को इनसे प्रेरणा लेना चाहिए.'