बस्ती: हिंदी और हिंदी साहित्य में दिलचस्पी रखने वालों के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल बहुत बड़ा नाम हैं, लेकिन जनपद के धरोहर आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिमा शहर के बड़े वन गांव में उपेक्षित धूल फांक रही है. आज हिंदी के पुरोधा को ही हिंदी दिवस पर भुला दिया गया.
धूल फांक रही आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिमा. शुक्ल जी ने हिंदी को किया था पल्लवित
रामचंद्र शुक्ल का जन्म वर्ष 1884 में बस्ती जिले के बहादुरपुर ब्लॉक के अन्तर्गत अगौना गांव में शरद पूर्णिमा तिथि को हुआ था. शुक्ल जी के पिता चंद्रबली शुक्ल सरकारी कर्मचारी थे. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी को उस दौर में पुष्पित और पल्लवित किया था, जब देश में विदेशी भाषा का प्रभाव था. उनके पैतृक गांव अगौना में बना पुस्तकालय भी एक अदद किताब के लिए तरस रहा है.
सम्मान के लिए तरस रहे रामचंद्र शुक्ल
गांव में आचार्य शुक्ल के नाम पर धर्मशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, शोध भवन की स्थापना उनके पैतृक आवास के स्थान पर हुई. साथ ही शहर के बड़े वन गांव में एक पार्क की स्थापना हुई और मूर्ति भी लगी, लेकिन सब कुछ पूरी तरह उपेक्षित है. हाल यह है कि पार्क में मूर्ति बने आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक अदद सम्मान के लिए तरस रहे हैं और उनके नाम पर स्थापित पुस्तकालय पुस्तक के लिए तरस रहा है.
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जानें डॉ कृष्ण प्रसाद मिश्र ने क्या कहा
पूर्व प्रधानाचार्य और पुस्तकालय संरक्षक डॉ. कृष्ण प्रसाद मिश्र का कहना है कि सरकार की तरफ से न कभी कोई कार्यक्रम किया जाता है और न ही किसी प्रकार की सरकारी मदद की जाती है. तत्कालीन मंडलायुक्त ने गांव में आचार्य शुक्ल के नाम पर पुस्तकालय, वाचनालय का शिलान्यास किया. साथ ही तत्कालीन जिलाधिकारी देवेंद्र त्रिपाठी ने भवन का उद्घाटन किया था, लेकिन साहित्य अध्ययन में कोई प्रगति नहीं हुई. उन्होंने कहा कि सांसद से लेकर किसी विधायक ने किसी भी प्रकार की कोई भी कोई मदद नहीं की.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की उपेक्षा बस्ती के साथ -साथ पूरे देश के लिए दुर्भाग्य की बात है. हिंदी की दुर्दशा के सबसे बड़े कारक हिंदी के नाम पर लाखों रुपये लेने वाले लोग हैं. कई बार जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मूर्ति गांव से हटाकर बड़े वन चौराहे पर लगाने का आग्रह किया गया, लेकिन कोई सुनता ही नहीं है.
-राजेन्द्र नाथ तिवारी, साहित्यकार