सरदारशहर (चूरू). सरदारशहर के बिजारासर गांव की बेटियां कबड्डी के क्षेत्र में अपना और प्रदेश का नाम रोशन कर रही है. यह सफलता बेटियों की इतनी आसान भी नहीं रही, इस सफलता के पीछे इन बेटियों ने कड़ा संघर्ष किया. गांव वालों के ताने सुने और ना जानें क्या-क्या इन बेटियों के घर वालों को सुनना पड़ा, लेकिन घरवालों ने साथ दिया और बेटियों ने अपने घर वालों को मौका दे दिया कहने पर कि हमारी छोरियां भी किसी छोरों से कम नहीं. आज पूरा बिजरासर गांव इन बेटियों के साथ खड़ा है.
गांव में कोई खेल खेला जाता है तो वह कबड्डी खेला जाता है. बिजरासर के गांव में कबड्डी को धर्म की तरह माना जाता है. जब लड़कियां कबड्डी के मैदान में उतरती है तो पूरा गांव एक जगह इकट्ठा होता है और लड़कियों का कबड्डी मैच देखता है. बिजरासर गांव की 8 बेटियां नेशनल स्तर पर खेल चुकी है, जबकि 12 बेटियां राज्य स्तर पर, गत राष्ट्रीय कबड्डी प्रतियोगिता में राजस्थान की कबड्डी टीम में 2 बेटियां बीजरासर की शामिल थी. वहीं चूरू जिले पर पिछले 4 सालों से बिजरासर की बेटियों का ही कब्जा है. सरदारशहर के छोटे से गांव से निकलकर यह बेटियां दिल्ली, गुजरात, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा में भी कबड्डी के मैदान में अपना जौहर दिखा चुकी है.
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कोच को मारा ताना, फिर जो हुआ सबके सामने
दरअसल बात साल 2014 की है. जब बिजरासर के लड़कों की कबड्डी की टीम राजेंद्र पोटलिया के नेतृत्व में पास ही के गांव में कबड्डी का मैच खेलने के लिए गई. तब इस टीम को सफलता नहीं मिली और हार का मुंह देखना पड़ा, हार के साथ-साथ पड़ोस के गांव वालों ने राजेंद्र पोटलिया को ताना मार दिया की कबड्डी का खेल कोई बच्चों का खेल नहीं है. तब कबड्डी के कोच राजेंद्र को यह बात चुभ गई और उन्होंने ठान लिया कि वो एक ऐसी टीम बनाएंगे, जो ना सिर्फ शहर जिले में बल्कि देश में गांव का नाम रोशन करेगी. इसके बाद कोच राजेंद्र ने लड़कों पर काफी मेहनत की, लेकिन लड़के गुरु राजेंद्र की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे. फिर उन्होंने असंभव को संभव बनाया और लड़कियों को कबड्डी के मैदान में उतार दिया और लड़कियों ने एक के बाद एक गांव से लेकर शहर तक और जिले से लेकर प्रदेश तक जीत के झंडे गाड़ दिए. लेकिन यह गुरु राजेंद्र के लिए इतना आसान भी नहीं रहा.
कोई नहीं माना तो अपने घर की बेटियां से की शुरुआत
जब गांव के लड़के कबड्डी में सफल नहीं हुए तो कोच राजेंद्र ने लड़कियों के साथ एक अच्छी कबड्डी की टीम बनाने कि मन में ठानी, लेकिन शुरू में गांव में कोई भी अपनी बेटियों को कबड्डी खिलाने पर राजी नहीं हुआ. तब हार थक कर राजेंद्र ने स्वयं ही अपनी दो बेटियों को और अपनी छोटी बहन को कबड्डी के मैदान में उतार दिया. इसके बाद धीरे-धीरे गांव की अन्य बेटियां भी कबड्डी खेलने के लिए आने लगी, लेकिन इस दौरान इन बेटियों को काफी कुछ गांव वालों से सुनना भी पड़ा. शुरुआत में तो अन्य लड़कियों के घर वाले भी कहते "कबड्डी लड़कों का खेल है लड़कियों का नहीं " लेकिन गांव की लड़कियों ने हार नहीं मानी और गुरु राजेंद्र के नेतृत्व में मेहनत करती रही और अंत में बेटियों ने सफलता के नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर दिए. आज इन बेटियों पर पूरा गांव गर्व करता है. कोच राजेंद्र बिना किसी दक्षिणा के लड़कियों को कबड्डी सिखा रहे हैं.