सिवनी।सदियों से चली आ रही माटीकला इस आधुनिक युग में कहीं खोती सी जा रही है. महज गर्मी के सीजन में मिट्टी से बनने वाले घड़े और दीवाली के लिए दीयों तक सीमत इस मिट्टी से क्या नहीं बनाया जा सकता, इसको भांपा सिवनी की कविता-बबिता ने. परंपरागत तरीके से चली आ रही माटीकला को इन दो बेटियों ने नया आयाम दिया है. जानें कैसे इस आधुनिक युग में पुश्तैनी माटीकला को नए तरीके से ये बेटियां पेश कर रही हैं इस खास रिपोर्ट में.
'माटीकला के साथ' कविता-बबीता के हाथ केवलारी तहसील के उगली इलाके में रहने वाली दो बेटियां कविता-बबिता अपने पिता के कंधे से कंधे मिलाकर माटीकला को नया आयाम देने में जुटी हुई हैं. अपनी पढ़ाई के साथ उनकी कोशिश है कि परंपरागत माटीकला की ओर एक बार फिर लोगों का ध्यान आए. जिसके लिए वे मिट्टी के बर्तनों पर आकर्षक कलाकारी करती हैं. साधारण से बन रहे बर्तनों को एक नया आकार देकर और मिट्टी की अलग-अलग वस्तुएं बनाकर वे माटीकला को बखूबी बता रही हैं.
महज गमले, घड़े और दीयों तक थे सीमित
उगली के झंडा चौक में रहने वाले कुम्हार रामकिशोर प्रजापति सालों से लकड़ी के चाक से मिटृटी के घड़े-गमले और दीये ही बनाते चले आ रहे थे. ये सब एक सीजन तक ही सीमित थे, जिसके बिकने के बाद उनका कामकाज बंद हो जाता था और फिर उन्हें आर्थिक संकट से जूझना पड़ता है. ऐसे में कविता और बबीता कागज-कलम के साथ मिटृटी में भी अपने हाथ फेरने लगी.
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कविता-बबिता के पिता मिट्टी से बर्तन बनाते हैं और ये दोनों बहनें उस कलाकृति में नए रंग भरती हैं. साथ ही अपने पिता रामकिशोर को मटके और गमले बनाने की पुश्तैनी कला के अलावा अब आदिकाल में उपयोग होने वाले मिटृटी बर्तन और घरों में साजसज्जा के रुप में उपयोग होने वाली कलाकृति सिखा रही हैं.
इंटरनेट से मिला आइडिया
माटीकला को नया आयाम दे रही कविता और बबीता प्रजापति बताती है कि तंगी हालत में पढ़ाई के साथ-साथ वे अपने पिता के साथ माटीकला को नया आयाम दे रही हैं. उनके पिता लकड़ी के चाक से बर्तन बनाते हैं लेकिन उन बर्तनों में डिजाइन वे खुद ही करती हैं. कविता और बबीता बताती है कि उन्होंने इंटरनेट में प्लास्टिक से बनी हुई कई कलाकृति देखी, जिसके बाद उन्होंने निश्चय कर लिया कि मिटृटी से भी इसी तरह की कलाकृति बनाएंगी.
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जिसके बाद पिता के साथ दोनों बेटियां अब किचन से जुड़े हुए मिटृटी के आकर्षक बर्तनों के साथ झूमर, फ्रिज, चिडियों का घोसला, चाय पीने के कप, मोबाइल स्टैंड सहित कई प्रकार की कलाकृति बना रही हैं. उनका कहना है कि सरकार स्वदेशी अपनाओ, देश बचाओ कह रही है और अपनी हम अपनी परंपराओं का निर्वाहन कर रहे है, लेकिन कुम्हार जाति के लिए शासन-प्रशासन कोई ध्यान नहीं दे रहा है.
मिलना चाहिए मंच
कोरोना काल में हर एक व्यवसायी की कमर टूट चुकी है. वहीं हर साल की अपेक्षा कुम्हारों को इस साल काफी नुकसान हुआ है. कविता-बबिता ने बताया कि इस तंगी के काल में भी हमने हार नहीं मानी है. पढ़ाई के साथ-साथ हम अपनी पुश्तैनी कला को संवारना चाहते हैं, इसलिए अब नए रुप में इसे पेश कर रहे हैं. लेकिन अगर शासन की ओर से एक मंच या मदद मिल जाए जहां हम अपनी माटीकला का प्रदर्शन कर सकें, जो इस माटीकला को संवारकर जीवित रखा जा सका है और कुम्हारों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार हो सकता है.
कोरोना काल में मददगार साबित हो रही कलाकारी
सिवनी की बेटियों की बनाई गई कलाकृति इतनी सुंदर और मनमोहक है कि जहां वो भी इसे बेचने के लिए रखती हैं, वहां लोग उनकी कलाकृति पर टकटकी लगाए देखते रहते हैं. इसके अलावा कुछ लोग इसे खरीदकर भी ले जाते हैं. वैश्विक महामारी कोरोना ने कविता-बबीता के परिवार के अलावा देशभर में कुम्हारों की कमर तोड़ दी है. ऐसे में कविता-बबीता की नायाब कलाकारी से बनाई गई कलाकृति उनके परिवार के जीवनयापन के लिए बहुत हद तक मददगार साबित हो रही है.
गर्व है अपनी बेटियों पर
सालों से माटीकला का काम कर रहे रामकिशोर प्रजापति का कहना है कि वे मटके और गमले बनाते चले आ रहे हैं जो कि एक ही सीजन में बिकते हैं. उनकी बेटियां मिटटी के बर्तनों को नई कला के रूप में जीवीत कर रही हैं, जिसके लिए उन्हें अपनी बेटियों पर नाज है. उनका कहना है कि वर्तमान समय में मिटृटी और लकड़ी की कीमतें बढ़ गई हैं, ऐसे में उनकी कलाकृतियों के भी अच्छे दाम मिलना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.