भोपाल। प्रदेश की सत्ता में वापसी के साथ ही बीजेपी के सामने अपने सभी विधायकों और सांसदों को संतुष्ट करने की बड़ी चुनौती है क्योंकि मंत्रिमंडल विस्तार में ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक विधायकों को ज्यादा तवज्जो दी गई है, ऐसी स्थिति में बीजेपी के विधायकों के अंदर असंतोष व्याप्त है. जिसे देखते हुए कई विधायकों को सहकारी संस्थाओं में प्रशासक या अध्यक्ष बनाने की कवायद की जा रही थी, लेकिन पूर्व में जारी नियमों की वजह से सहकारिता विभाग ऐसा नहीं कर पा रहा था.
अब शिवराज सरकार ने सहकारिता अधिनियम में संशोधन करते हुए उस धारा को ही समाप्त कर दिया है, जिसके तहत सांसद या विधायक न तो अध्यक्ष बन सकते थे और न ही वे प्रशासक नियुक्त किए जा सकते थे. अब 21 सितंबर को विधानसभा सत्र के दौरान संशोधन विधेयक को प्रस्तुत किया जाएगा. प्रदेश की शीर्ष अपेक्स सहकारी संस्थाओं में सांसद और विधायकों को प्रशासक या अध्यक्ष बनाए जाने का अब रास्ता साफ हो गया है. इसके लिए सहकारिता विभाग ने अध्यादेश के माध्यम से सहकारी अधिनियम संशोधन अध्यादेश 2020 को 24 अगस्त से लागू कर दिया है. जिसे 21 सितंबर से शुरु होने वाली विधानसभा के तीन दिवसीय सत्र में संशोधन विधेयक के रूप में प्रस्तुत कर पास कराया जाएगा.
शिवराज सरकार ने सहकारी सोसायटी अधिनियम 1960 की धारा 48(क)में संशोधन किया है. इसमें उस प्रावधान को समाप्त कर दिया है, जिसकी वजह से सांसद और विधायक सहकारी संस्था में पदाधिकारी नहीं बन पाते थे, अब सरकार चाहे तो उन्हें शीर्ष सहकारी संस्थाओं का प्रशासक बना सकती है और वह चुनकर भी अध्यक्ष बन सकते हैं. साथ ही ये नई व्यवस्था बनाई गई है कि अब प्रशासक को सामान्य कामकाज में सहयोग देने के लिए 5 सदस्य प्रशासकीय समिति बनाई जा सकेगी.
इन 5 सदस्यों की टीम में तीन सदस्य वे रखे जाएंगे जो संचालक बनने की पात्रता रखते होंगे, वहीं एक सदस्य पंजीयक और एक वित्त पोषक संस्था का प्रतिनिधि होगा. इसके अलावा राज्य सरकार अब जिस संस्था में चाहेगी, उसमें शासन की अंश पूंजी 25 फीसदी की अधिकतम सीमा से बनाई जा सकेगी. सहकारी समितियों में सरकार का दखल कम करने के लिए केंद्र सरकार ने शासन की अंश पूंजी कम करने का प्रावधान किया था. इससे पहले कमलनाथ सरकार ने जब किसानों की कर्ज माफी की थी तो उसका कुछ वित्तीय भार सहकारी समितियों पर भी आया था. ऐसे में समितियों को एक बार फिर से उबारने के लिए सरकार ने अंश पूंजी बढ़ाने का निर्णय लिया था, लेकिन अधिनियम में संशोधन नहीं किया गया था क्योंकि उससे पहले ही कमलनाथ सरकार गिर गई थी.