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Bhopal Gas Tragedy के 38 बरस, कैसे अब भी मिक गैस की लैब बना है भोपाल, कब खत्म होगी ये त्रासदी

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Published : Dec 1, 2022, 11:08 PM IST

ऐसा क्या हुआ कि 38 साल बाद भी भोपाल मिथाईल आइसोसानेट गैस की प्रयोगशाला बना हुआ है. ऐसा क्यों हुआ कि वोट के लिए मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाले सियासी दल भी ये संवेदना नहीं दिखा पाए कि पूरी पूरी जिंदगी के दर्द का मुआवजा केवल 25 हजार होता है. उस काली रात की सुबह के लिए और कितना इंतज़ार...

Bhopal Gas Tragedy
भोपाल गैस त्रासदी के 38 साल

भोपाल।38 बरस इतना लंबा अर्सा तो होता है कि कोई त्रासदी इस वक्त में पूरी तरह खत्म होने के साथ, पहले किस्सों फिर किताबों के साथ इतिहास का हिस्सा बन जाए. सबक तो वो हमेशा रहेगी ही, लेकिन दुनिया की भीषणतम औद्योगिक त्रासदियों में गिनी जाने वाली भोपाल गैस त्रासदी के जख्म तो 38 साल में भरने के बजाए गहरे हुए हैं. तो क्या बदला 38 सालों में. गैस पीड़ितों में कैंसर के मरीज दस गुना बढ़ गए. कोरोना में मौतें पूरे देश में हुई, लेकिन पांच फीसदी ज्यादा मौतें गैस फीसदी बस्तियों में दर्ज की गई और गैस पीड़ित माओं से पैदा होने वाले बच्चे दस फीसदी ज्यादा जन्मजात विकृतियां लिए हुए पैदा हो रहे हैं. गैस पीड़ित संगठनों का आरोप कि इतनी भयनाक तस्वीर के बावजूद सरकार की निगाह में ये माइनर इंजुरी. पांच लाख से ज्यादा गैस पीड़ितों की गुनहगार कंपनी दोषी लेकिन सजा गैस पीड़ितों के हिस्से आई है. ईटीवी भारत ने भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा से तमाम मुद्दों पर बातचीत की.

38 साल बाद भी क्यों खत्म नहीं हुई त्रासदी: भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एण्ड एक्शन की रचना ढींगरा कहती हैं ये त्रासदी इसलिए बनी हुई है कि किसी भी दल की सरकार में इतनी हिम्मत नहीं है कि जो कंपनियां इसके लिए जिम्मेदार है, उन पर कार्रवाई की जाए. 93 फीसदी लोगों को मतलब दस में से नौ लोगों को मात्र पच्चीस हजार रुपए मुआवजा मिला. उसमें भी कई बरस लग गए. पूरी जिंदगी की तकलीफ का मुआवजा केवल 25 हज़ार. जबकि इस गैस का जो असर है उसमें स्पष्ट है कि तुरंत इलाज मिल भी जाए तो भी इसका असर बरकरार रहता है. इसके बावजूद पीड़ितों की माइनर कैटेगरी बनाई गई. लिहाजा 38 साल में तिल तिल मर रहे पीड़ितों को इलाज के लिए 25 हजार रुपए मिले. अब मुआवजे के मामले में हमारा संघर्ष एक बेहद दिलचस्प मोड़ पर आ गया है, क्योंकि 2010 में भारत सरकार ने खुद ये मंजूर किया है कि गलती हुई है. अतिरिक्त मुआवजे के लिए सुप्रीम कोर्ट में सुधार याचिका भी लगी हुई है.

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असर..गैस पीड़ित अब नए कैंसर मरीज: 38 बरस बाद भी बनी हुई है त्रासदी क्योंकि तीन लाख से ज्यादा मरीज आज भी गैस राहत अस्पतालों में इलाज ले रहे हैं. असर ये हुआ है कि कैंसर गैस पीड़ितों में दस गुना ज्यादा बढ़ गया है. रचना ढींगरा कहती हैं असल में यूनियन कार्बाइड ने कभी नहीं बताया कि उन गैसों में क्या था उन गैसों के लगने से किस तरह की तकलीफ हो सकती है और ये ठीक कैसे हो सकती है. किसी को सांस की दिक्कत हुई उसे इन्हेलर दे दिया. किसी को दर्द हुआ पेन किलर दे दी. किलोग्राम से इन गैस पीड़ितो में दवाई खाई है. रचना जोडती हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने गैस पीड़ितों के ईलाज का अधिकार उनके जीने के अधिकार से जोड़ा है, लेकिन क्या ये अधिकार उन्हें मिल पा रहा है. भोपाल में नौ गैस राहत अस्पताल चलते हैं किसी भी में चले जाइए. वहां 80 फीसदी विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है. दवाईयां भी नहीं. भोपाल मेमोरियल अस्पताल में तो 16 में से नौ विभाग बंद हैं. 50 प्रतिशत से ज्यादा डॉक्टरों के पद खाली हैं. कैंसर का विभाग बंद पड़ा है. गैस पीड़ित जाए तो कहां जाए. ना मुआवज़ा है ना बीमारियों के लिए मरहम है.

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नौ गुना ज्यादा विकृति के शिकार बच्चे भी:रचना ढींगरा बताती हैं कि नेशनल इंस्टीयूट फार रिसर्च ऑन इवायरमेंटल हैल्थ ने जो शोध किया, उसमें गैस पीड़ित माताओं के जन्में बच्चे बाकी बच्चों के मुकाबले नौ गुना ज्यादा जनमजात विकृति के शिकार हैं, लेकिन ये स्टडी बंद कर दी जाती है. कोविड के आंकड़े देखें पांच गुना ज्यादा गैस पीड़ितों की मौत हुई है. फेफड़े की टीबीशुगर हायपरटेंशन आज भी गैस पीड़ित ऐसी बीमारियों के शिकार हैं. रचना जोड़ती हैं कि कंपनी को लगाम नहीं लगाई जा रही. वे पूछती हैं दुनिया में ऐसा कौन से देश में होता है कि पच्चीस हजार लोगों को मारने पांच लाख से ज्यादा लोगों को घायल करने के बावजूद एक मिनिट के लिए भी गुनहगार कंपनी जेल ना जाए. हम ये कौन सी मिसाल देश के सामने रख रहे हैं.

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