भोपाल। विश्व की सबसे बड़ी त्रासदी भोपाल गैस कांड के आज 35 साल पूरे हो गए हैं. इतने साल गुजर जाने के बाद भी लोग जहरीली गैस का दंश झेलने को मजबूर हैं. सरकारों ने दावे और वादे तो बहुत किए, लेकिन आज भी इस त्रासदी से पीड़ित लोग उचित इलाज और मुआवजा की लड़ाई लड़ रहे हैं.
गैस पीड़ित संगठनों का कहना है कि 14 और 15 फरवरी 1989 को केंद्र सरकार और अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के बीच हुआ समझौता पूरी तरह से धोखा था, इस समझौते के तहत मिली रकम गैसकांड के पीड़ितों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है. साथ ही इनका कहना है कि जो रकम मिलनी चाहिए, उसके पांचवें हिस्से से भी कम मिल पाई है. जिसका नतीजा ये हुआ कि गैस पीड़ितों को स्वास्थ्य सुविधाओं, मुआवजा और पर्यावरण क्षतिपूर्ति के साथ-साथ इन सभी के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ रही है.
इस मुआवजा राशि को लेकर 3 अक्टूबर 1991 को उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि 'यदि यह संख्या बढ़ती है तो भारत सरकार मुआवजा देगी'. इस समझौते में गैस रिसने से 3 हजार लोगों की मौत और 1.2 लाख प्रभावित बताए गए थे, जबकि असलियत में 15 हज़ार 274 मृतक और 5 लाख 74 हज़ार पीड़ित बताए जाते हैं, जो इस बात से साबित होता है कि भोपाल में दावा अदालतों द्वारा वर्ष 1990 से लेकर 2005 तक त्रासदी के इन 15 हज़ार 274 मृतकों के परिजनों और 5 लाख 74 हज़ार प्रभावितों को 715 करोड़ रुपए मुआवजे के तौर पर दिए गए हैं.
संगठनों ने दावा किया है जहरीली गैस से अब तक 20 हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए हैं. वहीं लगभग 5 लाख से भी ज्यादा लोग पीड़ित हैं. संगठनों ने कहा कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड उस समय यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के नियंत्रण में थी, जो अमेरिका की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी है और बाद में डाउ केमिकल कंपनी के अधीन रहा.
गैस त्रासदी की जहरीली गैस से प्रभावित लोग अब कई गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं. प्रभावितों के पास पैसा नहीं होने के कारण उन्हें उचित इलाज भी नहीं मिल पा रहा है और इलाज के नाम पर महज दो टेबलेट वितरित कर दी जाती हैं. गैस पीड़ित संगठन और इससे प्रभावित लोगों का आरोप है कि तीन दशकों में इतनी सरकारें आईं और गईं, लेकिन न तो राज्य सरकारों ने और न ही केंद्र सरकारों ने गैस पीड़ितों के लिए कोई कदम उठाए हैं.