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सोने सी खरी है जनरल जोरावर की शौर्य कहानी, जन्म स्थान की फिर भी पक्की नहीं निशानी

आज महान योद्धा जनरल जोरावर सिंह का बलिदान दिवस है. जनरल जोरावर सिंह 12 दिसंबर 1841 में तिब्बती सैनिकों की गोली लगने से शहीद हुए थे. जनरल जोरावर को भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है. जनरल जोरावर सिंह के जन्म स्थान के बारे में लंबे समय से बड़ी बहस छिड़ी है, लेकिन उनके जन्म स्थल के तथ्यों को खंगालने की सरकार ने कोई चेष्टा नहीं की. जनरल जोरावर सिंह का जन्म हमीरपुर और बिलासपुर जिला में बताया जाता है.

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Published : Dec 12, 2020, 4:41 PM IST

Updated : Dec 12, 2020, 10:11 PM IST

General Zorawar Singh
General Zorawar Singh

हमीरपुर:आज ही के दिन भारत के महान योद्धाओं में शुमार जनरल जोरावर सिंह ने शहादत पाई थी. जनरल जोरावर सिंह 12 दिसंबर 1841 में तिब्बती सैनिकों की गोली लगने से शहीद हुए थे. जनरल जोरावर को भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है.

भारत के महान योद्धाओं में शुमार जनरल जोरावर सिंह के जन्म स्थान के बारे में लंबे समय से बड़ी बहस छिड़ी है, लेकिन उनके जन्म स्थल के तथ्यों को खंगालने की सरकार ने कोई चेष्टा नहीं की. प्रदेश सरकार द्वारा धर्मशाला में स्थापित जनरल जोरावर सिंह के स्मारक में उन्हें बिलासपुर का बताया है.

ऐसा ही एक स्मारक बिलासपुर में है जिसमें भी यह दावा किया जाता है कि जनरल जोरावर सिंह बिलासपुर के रहने वाले थे. जनरल जोरावर सिंह की जन्मस्थली को लेकर अलग-अलग दावे हैं, लेकिन शोधार्थियों, इतिहासकारों और हमीरपुर जिला के लोगों का का मानना है कि वह हमीरपुर जिला के अंसरा गांव के रहने वाले थे.

जनरल जोरावर सिंह पर पीएचडी करने वाले शोधार्थी डॉ. राकेश कुमार शर्मा का भी यही दावा है कि जनरल जोरावर सिंह हमीरपुर जिला के नादौन विधानसभा क्षेत्र के अंसरा गांव के रहने वाले थे. डॉ. राकेश कुमार शर्मा इतिहास शोध संस्थान नेरी हमीरपुर की त्रैमासिक अनुसंधान पत्रिका के संपादक भी हैं. डॉ. शर्मा राजकीय महाविद्यालय हमीरपुर में इतिहास के सहायक प्रोफेसर के पद पर तैनात हैं.

प्रोफेसर डॉ. राकेश कुमार शर्मा कहते हैं कि जनरल जोरावर सिंह हमीरपुर के अंसरा में पैदा हुए थे इसको लेकर उनके पास पुख्ता प्रमाण है. राजस्व रिकॉर्ड हमीरपुर और जम्मू के रियासी जिला के रजिस्टर रिकॉर्ड इस बात की गवाही हैं. उन्होंने अपने शोध में राजस्व रिकॉर्ड को पूरी तरह से खंगाला है और आधिकारिक जानकारी दी है, जिसमें हमीरपुर जिला और रियासी जिला का रिकॉर्ड आपस में मिला है.

जनरल जोरावर सिंह के पांचवीं पीढ़ी के वंशज जयदेव भी ये पुष्टि करते हैं कि उनका जन्म हिमाचल प्रदेश के अंसरा गांव में हुआ था और वो खुद भी यहां आ चुके हैं. उन्होंने कहा कि राजस्व रिकॉर्ड में भी इस बात का जिक्र है. हरिद्वार के रजिस्टरों में भी जनरल जोरावर सिंह के वंश के बारे में अभी भी पूरी जानकारी मौजूद है.

रविंद्र कुमार कौशल एक सेवानिवृत अधिकारी हैं और नादौन के ही रहने वाले हैं. उनका कहना है कि सरकार को सही तथ्यों को लोगों के समक्ष लाना चाहिए, ताकि एक महान सेना नायक जनरल जोरावर सिंह के स्वर्णिम इतिहास के बारे में सही जानकारी लोगों को मिल सके. वह हमीरपुर के ही रहने वाले थे और सरकार को इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए. जनरल जोरावर सिंह कल्याण राजपूत सभा के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह परमार सिंह का भी यही मानना है.

वीडियो रिपोर्ट.

कौन थे जनरल जोरावर सिंह ?

हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर में राजपूत परिवार में 13 अप्रैल 1786 में जन्मे जनरल जोरावर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए जाना जाता है. वह अपनी योग्यता से जम्मू रियासत की सेना में राशन प्रभारी से लेकर किश्तवाड़ के वजीर बने. रियासी में बना जनरल जोरावर का किला उनकी बहादुरी की याद दिलाता है.

जोरावर सिंह का बहादुरी का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि दुश्मन भी उनकी युद्ध पद्धति के कायल थे. डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह की फौज में सबसे काबिल जनरल जोरावर सिंह ने उन्नीसवीं शदाब्दी में खून जमाने वाली ठंड में लद्दाख और तिब्बत को जम्मू रियासत का हिस्सा बनाया था.

तिब्बत जीतने के बाद 12 दिसंबर 1841 में तिब्बती सैनिकों के अचानक हुए हमले में जनरल जोरावर सिंह गोली लगने से शहीद हुए थे. उनकी युद्ध को लेकर रणनीति का अध्ययन भारतीय सेना आज भी करती है. इसलिए भारतीय सेना हर साल 15 अप्रैल को जनरल जोरावर सिंह दिवस मनाकर हर हाल में देश की रक्षा का प्रण लेती है.

जम्मू रियासत की सेना में भर्ती

जनरल जोरावर सिंह अपने घर से किशोर अवस्था में ही हरिद्वार चले गए और यहां पर एक जागीरदार से उनकी मुलाकात हुई. इसके बाद वह जागीरदार के साथ जम्मू गए, यहां पर उनकी मुलाकात राजा गुलाब सिंह से हुई और राजा गुलाब सिंह ने उन्हें सेना में भर्ती कर लिया.

जनरल जोरावर सिंह को रियासी जिला में तैनाती दी गई. रियासी के सेना टुकड़ी के सेना नायक ने पत्राचार के लिए इन्हें जम्मू भेजना शुरू किया और इस दौरान राजा से इनकी नजदीकियां बढ़ी. जनरल जोरावर सिंह ने राजा गुलाब सिंह को सैनिकों को राशन के बजाय धन देने की सिफारिश की तथा लंगर व्यवस्था को भी शुरू करवाया.

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इस वयवस्था के शुरू होने के पहले ही साल में महाराजा गुलाब सिंह को एक लाख की बचत हुई. इस फायदे के बाद जोरावर सिंह राजा के चहेते बन गए. राजा गुलाब सिंह ने उन्हें स्पलाई इंस्पेक्टर बना दिया और जम्मू रियासत में ये परंपरा बदल गई और सैनिकों को राशन के बजाए धन दिया जाने लगा.

पहले जागीरदार फिर किश्तवाड़ जीतने के बाद बने वजीर

जोरावर सिंह को राजा गुलाब सिंह ने पहले रियासी का जागीरदार बनाया. जब अपने पराक्रम से जनरल जोरावर सिंह ने किश्तवाड़ को जीत लिया तो राजा गुलाब सिंह ने उन्हें किश्तवाड़ का वजीर तैनात कर दिया. यहां पर सेनानायक के रूप में कार्य करते हुए जोरावर सिंह ने 5,000 डोगरा सैनिक भर्ती किए और लद्दाख का अभियान शुरू कर दिया.

ऐसे मिला कहलुरिया नाम

डॉ. राकेश कुमार शर्मा कहते हैं कि 1834 से 1839 तक छह बार जनरल जोरावर सिंह ने लद्दाख पर चढ़ाई की. इस दौरान उन्होंने अपने विजयी अभियान में एक लाख वर्ग किलोमीटर का बड़ा भू-भाग जम्मू रियासत में मिला दिया. जिसमें बाल्टिस्तान-गिलगित और लद्दाख का एक बड़ा हिस्सा इसमें शामिल था.

युद्ध जीतकर जब जनरल जोरावर सिंह वापिस जम्मू आए तो राजा गुलाब सिंह ने दरबार में उनका भव्य स्वागत किया गया. खुद महाराज गुलाब सिंह ने अपने तख्त से उठकर उनका गले लगाकर स्वागत किया था. इसी मौके पर जम्मू रियासत में कहलूर रियासत की एक रानी थीं, जिन्होंने जनरल जोरावर सिंह को अपना धर्म भाई बना लिया. कहलूरिया रानी के भाई बनने के बाद से ही जनरल जोरावर सिंह के नाम के साथ कहलूरिया शब्द जोड़ा जाने लगा.

धर्मशाला में लगी जनरल जोरावर सिंह की प्रतिमा.

जब जनरल जोरावर लद्दाख जीत कर आए थे तो राजा गुलाब सिंह ने इन्हें शासकों को दिए जाने वाला सम्मान जय देवा दिया. उस दौर में दरबार में सिर्फ शासक के आने पर ही जय देवा का उद्घोष किया जाता था, लेकिन जनरल जोरावर सिंह के लिए भी यह उद्घोष दरबार में किया जाने लगा.

भारतीय युद्ध पद्धति में माहिर थे जनरल जोरावर

भारत कला भवन बनारस के लगभग 20 मीटर लंबे छाया चित्रों में यह दर्शाया गया है कि जनरल जोरावर सिंह ने 1834 में लद्दाख की तरफ कूच करने से पहले ही इस क्षेत्र का पूरा नक्शा तैयार कर लिया था. वह पूरी रणनीति के साथ इस अभियान पर गए थे. रात के समय में भी युद्ध लड़ने की कला उनमें थी. उद्घोष की रणनीति उन्होंने इस युद्ध में अपनाई और विरोधियों को परास्त किया.

दुश्मनों ने समाधी बनाकर लिखा- शेरों का राजा

जनरल जोरावर सिंह इतने महान रणनीतिकार थे कि कम सैनिकों का संख्या बल होने के बावजूद वह दुश्मन सेना को खुद पर हावी नहीं होने देते थे. साल 1841 में तत्कालीन जम्मू रियासत के लिए युद्ध लड़ते हुए उन्होंने मानसरोवर में वीरगति पाई थी.

जब जोरावर सिंह शहीद हुए तो पूरा एक दिन बीत जाने के बावजूद भी तिब्बत और चीन के संयुक्त सेना के सैनिक और अधिकारी उनके पार्थिव देह के पास आने से भी डरते रहे. अंततः तिब्बत और चीन की संयुक्त सेना ने इस महान योद्धा को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इनका स्मारक मानसरोवर में बनाया.

इस स्मारक को सिंह का छोरतन कहा जाता है. ये स्मारक आज भी मानसरोवर में मौजूद है. इस पर दुश्मनों ने जनरल जोरावर सिंह की बहादुरी की कद्र करते हुए उनकी समाधी पर 'शेरों का राजा' लिख दिया. आज भी तिब्बत की महिलाएं अपने बच्चों को समाधी स्थल पर ले जाकर ये कामना करती हैं कि उनके बच्चे भी जनरल जोरावर जैसे 'शेर' बहादुर बनें.

भारतीय सेना के पास आज भी है जनरल जोरावर सिंह का झंडा

शोधार्थी डॉ. राकेश कुमार शर्मा की माने तो रात के अंधेरे में तिब्बत की सेना से युद्ध जीतने के बाद जनरल जोरावर सिंह ने दुश्मन सेना का एक झंडा भी उनसे छीन लिया था. यह झंडा आज भी भारतीय सेना की 4 जैक रेजीमेंट के पास आज भी मौजूद है.

सही तथ्यों को खंगाले प्रदेश सरकार

महान योद्धा जनरल जोरावर सिंह के बारे में प्रदेश सरकार को ही सही जानकारी ना होना दुखद है. इस महान योद्धा के बारे में लोगों को सही जानकारी मिले इसके लिए सरकार को प्रभावी कदम उठाने चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह जनरल जोरावर सिंह की जन्मस्थली के बारे में सही तथ्य खंगाल कर आम लोगों के समक्ष रखे, ताकि उनकी बहादुरी के बारे में प्रदेश के लोग जान सकें.

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Last Updated : Dec 12, 2020, 10:11 PM IST

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