नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद भले ही लग रहा हो कि फिलहाल शांति है, लेकिन अंदरखाने ही सही सभी राजनीतिक दल साल 2022 में देश के पांच राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव-2022 (Assembly elections 2022) की तैयारियों में जोर-शोर से लगे हुए हैं. इनमें से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड काफी महत्वपूर्ण हैं, जैसा कि हम जानते हैं कि आज भी देश की सत्ता की चाबी यूपी से ही मिलती है और उत्तराखंड भी सभी पार्टियों के लिए बहुत जरूरी है. जगजाहिर है कि इन दोनों ही राज्यों में सवर्ण वोट जिस किसी के पाले में जाएगा, उसकी जीत पक्की होगी. सवर्णों की इस ताकत को फिलहाल भाजपा बखूबी समझ रही है, तभी तो यूपी और उत्तराखंड (Up Political News) दोनों ही राज्यों में सवर्ण को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया है.
यूपी में सवर्णों का राजनीतिक (Up Politics) दखल समझना हो तो ऐसे समझा जा सकता है कि आजादी के बाद यूपी को सवर्णों ने पांच सीएम दिए हैं. यही नहीं, यूपी के ही दो ठाकुर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. ब्राह्मणों के बाद सत्ता पर सबसे ज्यादा पकड़ ठाकुरों की ही रही है. उत्तर प्रदेश से ही चंद्रशेखर और वीपी सिंह सत्ता के शीर्ष पदों तक पहुंचे.
यूपी की राजनीति के जानकार संतोष पांडे बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में करीब 12-13 प्रतिशत ब्राह्मण हैं, जिस पर सभी दलों की नजर हमेशा से ही रहती है. वहीं राजपूत (ठाकुर) 6-7 फीसदी तक हैं. साल 2017 में जब यूपी में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला और योगी आदित्यनाथ सीएम बने तो सत्ता में एक बार फिर से राजपूतों (ठाकुरों) की वापसी हुई. यूपी में 403 विधानसभा सीटों में से भाजपा के पास 312 सीटे हैं जिनमें 7 फीसदी आबादी के बावजूद 56 विधायक और योगी कैबिनेट में 7 मंत्री राजपूत हैं.
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भाजपा का सवर्ण प्रेम
कभी दो सांसदों वाली पार्टी भारतीय जनता पार्टी इस समय केंद्र के साथ ही देश के सबसे बड़े सूबे यूपी और पड़ोसी राज्य उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज है. पार्टी के अस्तित्व काल से सवर्णों का दबदबा रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर, कलराज मिश्र और अब क्षत्रियों के दो बड़े नेताओं सीएम योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह का पार्टी से लेकर सत्ता तक में प्रभावी दखल रहता है.
इसके पीछे की बड़ी वजह ये है कि सवर्ण यानी ठाकुर और ब्राह्मण संख्या में भले ही कम रहें, लेकिन इनके प्रभावशाली रसूख की वजह से इनका पावर शेयर अन्य जातियों के मुकाबले ज्यादा ही रहता है. एक पहलू ये भी है कि सवर्ण सामाजिक तौर पर दबदबे वाले, ग्रामीण उच्चवर्ग के प्रतीक, दबंग एवं मत बनाने वाले माने जाते हैं.
बसपा का सोशल इंजीनियरिंग का हिट फार्मूला
बहुजन समाज पार्टी द्वारा 2007 में अपनाया गया सोशल इंजीनियरिंग का हिट फार्मूला भला कैसा भुलाया जा सकता है. इस फार्मूले के दम पर ही मायावती ने यूपी की सत्ता पाई थी. एक बार फिर से बसपा ने ब्राह्मणों को अपने पाले में खींचने की मुहिम तेज कर दी है. पार्टी को लगता है कि ब्राह्मण और दलितों का गठजोड़ कर दें तो 2022 में आराम से सत्ता पर काबिज हो सकते हैं.
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कई दलों से गठबंधन और संगठन में अनेक प्रयोगों के बाद बसपा मानती है कि 2007 में बनी रणनीति के अनुरूप ही सफलता मिल सकती है. लिहाजा पार्टी ने फिर एक बार सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से पुराने फॉर्मूले को लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाया है. बसपा की इस सोच को साकार करने की जिम्मेदारी एक बार थामी है मायावती के बेहद खास सतीश चंद्र मिश्रा ने.