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सामाजिक एकता की मिसाल है 'जशपुर दशहरा', 800 साल पुराना है इतिहास

जशपुर में दशहरा पर्व रियासतकाल की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप मनाया जाता रहा है. जशपुर दशहरा आज भी रियासतकाल की ऐतिहासिक संगठन की कहानी बयां करता है. यहां का दशहरा राजपरिवार के साथ मनाया जाने वाला सभी वर्ग समुदाय का सबसे बड़ा पर्व है. देखिए ऐतिहासिक 'जशपुर दशहरा' की रस्मों पर खास रिपोर्ट.

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Published : Oct 26, 2020, 9:14 PM IST

Updated : Oct 26, 2020, 10:38 PM IST

dussehra festival in jashpur
जशपुर दशहरा

जशपुर:जशपुर में शक्ति की उपासना और असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक का पर्व दशहरा धूमधाम से मनाया जा रहा है. जशपुर में दशहरा पर्व रियासतकाल की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप मनाया जाता रहा है. जशपुर दशहरा आज भी रियासतकाल की ऐतिहासिक संगठन की कहानी बयां करता है. यहां का दशहरा राजपरिवार के साथ मनाया जाने वाला सभी वर्ग समुदाय का सबसे बड़ा पर्व है. जो अनूठी परंपराओं से जुड़ा है. हालांकि कोरोना के खतरे के बीच पारंपरिक दशहरा उत्सव सरकार की तरफ से जारी की गई गाइडलाइन का पालन करते हुए मनाया गया.

गौरवशाली परंपरा को आगे बढ़ाता जशपुर दशहरा

जशपुर दशहरा के ऐतिहासिक महत्व पर गौर करें तो रियासतकाल में जनजातीय समुदाय और तात्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य इतना मजूबत था कि दस दिनों तक चलने वाले इस महा उत्सव में हर रीति रिवाज में समाज के सभी वर्ग की बराबर की भागीदारी होती थी. नवरात्र के पहले दिन से लेकर रावण दहन तक के हर अनुष्ठान में समाज के हर वर्ग को जो जिम्मेदारी बांटी गई थी, उसे परिवार के सदस्य 27 पीढ़ियों से निभाते आ रहे हैं.

जशपुर राजपरिवार

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जशपुर रियासत के उत्तराधिकारी और तत्कालीन राजा रणविजय सिंह जूदेव का मानना है कि 800 सालों से यह दशहरा मनाया जा रहा है. उनका कहना है कि पहले यहां डोम राजाओं का राज हुआ करता था. जिन्हें हमारे पूर्वज राजा सुजान राय ने हराकर हजार साल पहले इस दशहरा की शुरुआत की थी. दशहरा उत्सव जशपुर का महा उत्सव इसलिए भी है क्योंकि इस उत्सव में धर्म, जाति, संप्रदाय के बंधनों को पीछे छोड़ यहां के निवासी एक स्थान पर एकत्रित होकर असत्य पर सत्य की जीत के लिए एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं.

अनुष्ठान विश्व कल्याण के लिए

नवरात्रि के पहले दिन से शुरू होने वाले अनुष्ठान का विशेष महत्व है. जशपुर रियासत की सत्ता को संचालित करने वाले देव बालाजी भगवान के मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर यहां पूजा की जाती है. राजपुरोहित पंडित विनोद मिश्रा ने बताया कि यह अनुष्ठान विश्व कल्याण की प्रार्थना के साथ राज परिवार के सदस्यों, आचार्यं, बैगाओं और नागरिकों के द्वारा प्रारंभ किया जाता है. झांकी के रूप में पक्की डाड़ी से पवित्र जल गाजे- बाजे के साथ देवी मंदिर में लाया जाता है. जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित की जाती है. इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्यों के मार्गदर्शन में राज परिवार के सदस्य समेत नगर और ग्रामों से आए श्रद्वालु मां दुर्गा की उपासना वैदिक, राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं. अनुष्ठान में पूरे नवरात्रि तक हजारों की संख्या में श्रद्वालु शामिल होते हैं.

8 सौ साल पुराना मां काली का मंदिर

नवरात्रि पूजा की शुरुआत यहां आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर से होती है, जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण के लिए अनुष्ठान करते हैं. इस मंदिर की स्थापना राज परिवार ने की थी, जिसमें मां काली की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा आचार्य खगेश्वर मिश्रा ने की थी. यहां हर एक त्योहार में नगरवासियों और जनजातियों में पूजा पद्वति में कुछ विभिन्नतांए हैं, लेकिन दशहरा महोत्सव में बैगा,पुजारी,आचार्य सभी एक पंरपरा का निर्वहन करते हैं. किसी की भी अनुपस्थिति होती है तो पूरा उत्सव अधूरा होता है.

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नियमित हवन पूजन

नवरात्रि के दौरान मां काली और बालाजी मंदिर में नियमित रूप से हवन, पूजन में श्रद्वालु लीन रहते हैं, वहीं षष्ठी के दिन वनदुर्गा को दशहरे के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए आमंत्रण दिया जाता है. आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है, जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर पर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती हैं. वनदुर्गा के साथ मां काली की सेना के रूप में 64 योगिनियों को भी आमंत्रण दिया जाता है. योगिनियों के साथ वे बुरी आत्माएं आमंत्रित होती हैं, जिन्हें सतकर्म के लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में ले लिया था. मान्यता है कि यहां पर तांत्रिक बेल का पेड़ है, जिसमें आम के पौधे भी उगे हैं. षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वनदुर्गा को सप्तमी के दिन लेने के लिए भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं. यहां से सप्तमी के दिन वनदुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फल को लाया जाता है और उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है. इन सभी परंपराओं का निर्वहन इस साल भी किया गया.

निकली भगवान बालाजी की सवारी

विजयादशमी के दिन कोरोना महामारी को चलते सीमित संख्या में श्रद्वालु बालाजी मंदिर में एकत्रित हुए और भगवान बालाजी की विशेष पूजा-अर्चना के बाद विशेष रथ में स्थापित किया गया. एक रथ में जहां भगवान होते हैं, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित और राज परिवार के सदस्य होते हैं. शोभा यात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुंची. इस स्थान को पहले रैनी डांड कहा जाता था. रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है, यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जहां रावण समेत कुंभकर्ण, मेघनाथ और अहिरावण के पुतले जलाए जाएंगे. हनुमान जी लंका दहन करते हैं.

नीलकंठ दर्शन

लंका दहन के बाद अपराजिता पूजा होती है. जिसके बाद दशहरे के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है. यह विशेष बैगा की ओर से यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है. इस दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि रावण वध के समय रावण ने हनुमान को उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था और हनुमान ने रावण को शिव के नीलकंठ रूप में दर्शन दिए थे. इसके बाद ही रावण को मुक्ति मिली थी. यहां के लोगों की मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे विश्व के लिए यह साल शुभ होता है, वह नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है.

Last Updated : Oct 26, 2020, 10:38 PM IST

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