रीवा। विंध्य की अलौकिक धरती से तो हर कोई परिचित है. इस विंध्य की धरती से जुड़े कई ऐसे किस्से और गौरव गाथाएं हैं. जिसे सुनकर बड़ा ही आश्चर्य होता है, क्योंकि इस भूमी ने जहां दुनिया भर को सफेद शेरों की सौगात दी तो वहीं, महान संगीत सम्राट तानसेन और वॉक चतुरता के प्रख्यात हुए बीरबल भी इसी धरती से जन्मे हैं. यहां पर कई ऐसे धार्मिक स्थल और कई ऐसे प्राचीन मंदिर हैं. जिनके किस्से सुनकर हर कोई अचंभित हो जाता है. फिर वह चाहे एक रात में बना देवतालाब का प्रासिद्ध शिव मंदिर हो या मैहर में स्थित प्राचीन मां शारदा का धाम हो. समूचे विंध्य की पौराणिक गाथाएं ही अपने आप में अद्भुत अकल्पनीय और अविश्वसनीय है.
विंध्य की माटी के गजब किस्से
विंध्य की माटी में ऐसा कुछ तो अवश्य है, जिसे हम इस बात से समझ सकते है की, विंध्य के चारों दिशाओं में स्थापित शक्ति पीठ के रुप में शक्ति स्वरूपा स्थापित है. फिर वह रीवा के मिर्जापुर सीमा पर स्थापित मां विंध्यवासिनी का धाम हो या फिर सीधी जिले में स्थापित मां घोघरा का धाम हो. चित्रकूट में स्थित शिवानी शक्ति पीठ हो या अमरकंटक में स्थित काल माधव (शोण) शक्ति पीठ हो. समूचे विंध्य में यह चारों शक्ति पीठ 52 शक्ति पीठों में मान्य शक्ति पीठ है. अब अगर महान ऋषियों की तपोभूमि विंध्य की बात की जा रही है, तो महान ऋषि वाल्मीकि का नाम भी आना आवश्यक ही है, क्योंकि ऋषि वाल्मिकी द्वारा विंध्य की इसी तपोभूमी पर तमसा नदी के तट पर रामायण लिखी गई.
इसी धरती पर राम बने मर्यादा पुरुषोत्तम
अगर रामायण लिखे जाने के पूर्व की बात करें तो भगवान राम ने मां सीता और अनुज लक्ष्मण के संग अपने 14 वर्षों के वनवास काल में लगभग 12 वर्ष इसी विंध्य की धरती चित्रकूट के जंगलों में बिताए. वैसे तो दावा किया जाता है की भगवान राम का अस्तित्व ही तकरीबन 7 हजार नर्ष पुराना है, लेकिन अगर उपलब्ध पुरातात्त्विक एवं ऐतहासिक प्रमाणों को अधार मानकर देखा जाए तो हमारा सनातन धर्म ही 12 हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है. समूचे भारतवर्ष की अगर बात करें तो अकेला विंध्य ही मात्र एक ऐसा स्थान है. जहां पर चारों दिशाओं में देवी के अलग-अलग शक्ति पीठ हैं. जिसके चलते यह स्थान अपने आप में अलौकिक स्थान माना जाता है. जिसका उल्लेख भी पुराणों में समाया हुआ है.
विलुप्त होता वह स्थान जहां पाई जाती है 12 हजार साल पुरानी संस्कृति
देश के जानें माने प्राच्य भारतीय विद्याविद "Indologist" ललित मिश्र ने एक ऐसे दिव्य दैविक स्थान का पता लगाया, जो लिखित इतिहास "Pre Historic" के पहले का है और यह दैविक स्थान अपने आप में ही बड़ा अद्भुत है. हम बात करने जा रहे हैं विंध्य क्षेत्र के भूमि की उस विलुप्त होते जा रहे इतिहास की जहां की संस्कृति ही 12 हजार वर्ष पुरानी है. इस स्थान की खोज तो पहले ही हो चुकी थी. इसका इतिहास केवल इतिहास के पन्नो में दबा रह गया. लेकिन अब इस स्थान के बारे में ललित मिश्र ने बड़ी जटिलता के साथ दोबारा अध्ययन किया और इस स्थान को उसकी खोई हुई पहचान वापस दिलाई है.
सीधी जिले में स्थित है देवी का दिव्य स्थान
हम बात कर रहें है विंध्य के रीवा शहर से जुडे़ सीधी जिले की जहां पर देवी का यह दिव्य स्थान है. प्राच्य भारतीय विद्याविद ललित मिश्र के साथ ईटीवी भारत की टीम बीते दिनों देवी के दिव्य धाम का पता लगाने के लिऐ रीवा से सीधी जिले की ओर रवाना हुई थी. बड़ी कठिनाइयों के बाद आखिरकार टीम सीधी जिले के सेहावल के पास उस मेधौली गांव पहुंची, जहां से दिव्य स्थान की अनुभूति होनी प्रारंभ हुई. हमें गांव के गलियारों में बैठे कुछ बुजुर्ग मिले, जिनसे हमने दैविक स्थलों की जानकारी जुटाई. जिसके बाद वह टीम को लेकर गांव की पगदंडियों से होते हुए उस स्थान पर ले गए, जहां पर शक्ति स्वरूपा विराजमान थी.
12 हजार वर्ष पूर्व इसी स्थान पर सबसे पहले हुई थी देवी की उपासना
यह वही विंध्य की धरती पर स्थापित देवी का दिव्य धाम था. जहां 12 हजार साल पूर्व विश्व में सबसे पहले देवी की उपासना हुई थी. जिसके बाद देवी पूजन की शुरुआत हुई. जिसके बाद से अब तक दुनिया के कई देश देवी मां की उपासना करते आ रहे हैं. यूरोपीय विद्वानों के अनुसार सनातन धर्म की कुल प्राचीनता 3 हजार 500 वर्षों के बीच ही सीमित रह जाती है. मगर अब विंध्य की धरा में मिले दैवीय स्थलों में मिले साक्ष्यों के बाद अब सनातन धर्म का इतिहास 12 हजार वर्ष सी प्राचीन हो जाता है.
ऋग्वेद में अरण्यानि देवी का पाया जाता है वर्णन
खुले चबूतरों पर स्थित इन देवी स्थलों का प्रत्येक पत्थर रहस्यमय शक्ति पुंज समेटे हुये प्रतीत होते हैं. प्रत्येक चबूतरे पर 12 हजार वर्ष पहले पत्थरों पर बारीकी से उकेरी हुई त्रिकोण की आकृति पहली नजर में ही आकर्षित कर लेती है. कैमूर के ये स्थल प्रतीकों की वैश्विक जन्मस्थली के रूप में भी सामने आते हैं. ऋग्वेद के दसवें मंडल के 146वें सूक्त की अरण्यानि देवी के वर्णन से इनकी समरूपता मिलती है, जिन्हें अरण्यानि अर्थात वन देवी कहा जाता है. ग्रामीणों द्वारा इन देवीस्थलों की अधिष्ठात्री को जिस प्रकार से वनसती के नाम से जाना जाता है, उससे इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है कि पश्चिमी लेखकों में से एक लेखक जॉन मुइर ने सन् 1870 में अरण्यानि देवी का अध्ययन किया था.
40 वर्ष पूर्व दिव्य स्थल पर हुआ था अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण
वर्ष 1982-83 में प्रयागराज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीआर शर्मा के साथ प्रोफेसर जेडी क्लार्क के नेतृत्व में बर्कले कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी की टीम ने इन स्थलों का सर्वेक्षण किया था. टीम ने रिसर्च जरनल एंटीक्विटी में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की, किंतु वह प्रयास समय के अंधेरे में लुप्त हो गया. इसलिये स्थान से जुड़ी कथाओं के दोबारा अध्ययन करने की आवश्यकता पड़ी. सीधी के मेधौली गांव में 80 वर्ष के वृद्ध ब्रह्मदेव सिंह से मुलाकात हुई. जिन्होंने वर्ष 1982-83 में किये गये सर्वेक्षण में काम किया था. उन्होने बताया कि अमेरिका से आया हुआ एक दल प्रतिदिन पांच रुपये की दर से काम करवाता था.