चित्तौड़गढ़. निकटवर्ती बस्सी कस्बा अपनी अनूठी कावड़ कला के लिए भी पहचाना जाता है. सुथार जाति के कुछ परिवार आज भी अपने बाप-दादा की इस कला को सहेज कर सात समंदर पार पहुंचा चुके हैं. हालांकि, समय के साथ अब इसकी विषय वस्तु में भी बदलाव आया है. धार्मिक पुट के साथ समसामयिक विषयों का भी समावेश किया जाने लगा है. उसी का परिणाम है कि मेवाड़ से निकलकर देश के विभिन्न हिस्सों तक इसकी डिमांड पहुंच गई. सुखद पहलू यह है कि इसे सीखने के लिए युवा वर्ग आगे आ रहा है. इसके लिए बाकायदा सरकार की ओर से ट्रेनिंग की व्यवस्था की गई है.
मुगल काल में धर्म जागरण की थी जरिया : आर्टिस्ट द्वारका प्रसाद जांगिड़ के अनुसार मुगल काल में हिंदू धर्म पर विभिन्न प्रकार की पाबंदियां थी. शहरों में मंदिर तोड़ दिए गए थे. ग्रामीण अंचल में लोग अनपढ़ होने के कारण धर्म के प्रति जागरूक नहीं थे. सुबह से शाम तक खेती बाड़ी के साथ अपने काम धंधों में लगे रहते थे. ऐसे में शाम के समय कावड़ के जरिए उन्हें रामायण, महाभारत कृष्ण लीलाएं सहित तत्कालीन धर्म उपदेशों पर आधारित कहानियों से धर्म के प्रति जागृत किया जाता था.
टेलीविजन के परदे की तरह खुलता है कावड़ : कावड़ एक प्रकार से मुगल काल का टेलीविजन माना जा सकता है. लकड़ी के मंदिर में दरवाजों की तरह पट्ट बनाए जाते हैं, जिन पर कहानी के आधार पर अलग-अलग चित्र बनाए जाते हैं. यह चित्र कहानी के प्रारंभ से अंत तक बाकायदा सीरीज में पट्ट पर उकेरे जाते हैं. कावड़ की साइज डिमांड के अनुरूप रहती है जो 4 से 5 फीट तक भी तैयार की जाती है. इन्हीं पर पूरी कहानी का पिक्चराइजेशन किया जाता है.