इंदौर। ख्यात कबीर गायक कालूराम बामनिया को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, लेकिन उनकी गायकी का सफर कभी आसान नहीं रहा. इंदौर में चर्चा के दौरान कालूराम बामनिया ने बताया कि 'वह खेत पर पत्नी के साथ दिन में मजदूरी करते थे. रात में पत्नी को कमरे में बंद करके ताला लगाकर भजन गाने जाते थे. उन्होंने कबीर गायकी की अपनी परंपरा को नहीं छोड़ा. जिसके फलस्वरुप आज उन्हें पद्मश्री के रूप में कबीर भजन गायकी की पहचान मिली है.
पद्मश्री कालूराम बामनिया पहुंचे इंदौर
दरअसल, राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू द्वारा पद्मश्री से सम्मानित होने के बाद कालूराम बामनिया पहली बार इंदौर आए. इस अवसर पर प्रेस क्लब द्वारा उनका अभिनंदन भी किया गया. इस दौरान पद्मश्री कालूराम बामनिया ने अपनी कबीर गायकी की शुरुआती जानकारी देते हुए कबीर गायकी के भजन भी सुनाए. पद्मश्री मिलने पर कालूराम बामनिया ने बताया कि 'यह अवार्ड केवल मुझे नहीं मिला है, यह पूरे मालवा को मिला है और मेरी विरासत को मिला है. इस परंपरा को कायम रखने के लिए मुझे जवाबदारी मिली थी, वह मैंने पूरी कर दी.' इस काम करने के लिए मुझे कई तरह की मदद भी मिली थी. उन्होंने कहा कि कबीर गायकी के लिए मेरे जीवन में कितनी परेशानी उठाई है, यह मैं और मेरा परिवार जानता है, लेकिन बिना मेहनत के कोई चीज नहीं मिलती है.
दो भजन गाने करते थे कई किलोमीटर का सफर
कालूराम बामनिया ने कहा कि कर्म करो फल की इच्छा ना करो, यह आज साबित हुआ. देवास जिले के कन्हेरिया गांव में जन्मे और छोटे से कस्बे टोंक खुर्द के रहने वाले कबीर गायक कालूराम बामनिया ने यहां तक पहुंचने के लिए कई संघर्ष का सामना किया. उन्होंने कहा कि पूर्वजों द्वारा दी गई इस कला को में जन-जन तक पहुंचाना चाहता था. इसके लिए कई बार घर में पत्नी को बंद कमरे में ताला लगा कर चले जाता था. उन्होंने अपने बुरे दिनों को याद करते हुए कहा इंदौर जिले के शिप्रा के पास सुनवानी महाकाल नामक गांव में 2 तारीख को भजन गाने का कार्यक्रम होता था, लेकिन तब मैं एक खेत पर मजदूरी और चौकीदारी करता था.