जयपुर. शेक्सपियर ने कहा था नाम में क्या रखा है, लेकिन इन दिनों नाम ही सड़क से संसद तक और फिर सुप्रीम कोर्ट तक चर्चा का मुद्दा बन गया है. बात सिर्फ नाम की नहीं, बल्की जाति और मजहब से भी जुड़ी है. यूपी में कावड़ यात्रा के रास्ते में आने वाले थड़ी-ठेलों से लेकर दुकानों पर लिखे नामों के साथ मजहब को उजागर करने का मकसद देश की सर्वोच्च अदालत ने खारिज कर दिया. इस बीच चर्चा दिल्ली से जयपुर तक आ पहुंची. वो जयपुर जिसकी बुनियाद में गंगा-जमुनी तहजीब रहती है और यहां दुकानों पर ही नहीं बल्कि गली-मोहल्लों और सड़कों के नाम भी मामूली शख्स से लेकर शख्सियत को समर्पित रहे. इस शहर के इतिहास से सरोकार रखने वालों ने भी कभी नाम के आगे की पहचान को तवज्जो नहीं दी.
1727 में नक्शे के साथ बसाए गए जयपुर शहर की सूरत आजादी से पहले 1947 तक वक्त के साथ संवरती गई. जरूरतों ने शहर की आगोश का दायरा इतना बढ़ा दिया कि चारदिवारी के दायरे को लांघकर अजमेर की ओर रुख करने वाला रास्ता मिर्जा इस्माइल के नाम से पहचान बना गया. इसके बीच में ठोलिया सर्किल ने पांच बत्ती के रूप में पहचान बना ली और एमआई रोड ही नहीं, परकोटे के हर रास्ते की दुकान पर भी किसी खास शख्स के हुनर को नाम और शोहरत मिली. यहां जातिगत ठठेरों का रास्ता और मनिहारों का रास्ता भी है. सच्चाई की पहचान हरिशचंद्र के हमनाम रास्ता भी है. कल्याणधणी के मंदिर ने गली को नाम दिया, तो जयलाल मुंशी और गोविंदराव रास्ते के नाम पर पीढ़ियों तक अमर हो गए. इस शहर में पठानों का चौक आज भी अफगानी काबुली वाले के किस्सों का गवाह बना हुआ है. यही नहीं, कुछ रास्ते तो जायकों को परोसने वालों के नाम से पहचाने जाते हैं.
वहीं, जयपुर की इसी विरासत का बखान करते हुए इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जयपुर की बसावट एक कंपोजिट कल्चर को लेकर हुई, जिसमें सभी धर्म, सभी जातियां, सभी मान्यता के लोग रहे हैं. बसावट के पीछे भी यही उद्देश्य रहा कि यहां सभी तरह के लोग मौजूद हो, ताकि एक संपूर्ण नगर बन सके. सवाई जयसिंह के दिमाग में ये बात थी इसलिए पहले नक्शे बनवाए और फिर नक्शों के आधार पर गालियां और चौकड़िया बनाते हुए लोगों को बसाया गया. आज भी जयपुर में देखने को मिलेंगे कि जातियों के नाम पर मोहल्ले बने हुए हैं, लेकिन यहां राजा ने भी कभी भेदभाव नहीं किया. यहां मनिहारों का रास्ता भी मिलेगा, ठठेरों का रास्ता भी मिलेगा और लोहार का खुर्रा भी मिलेगा, जिसमें उसी कार्य को करने वाले लोग भी बसे हुए हैं और वहीं काम होता भी आया है.
उन्होंने बताया कि सवाई जय सिंह का जो विजन था उसमें उन्होंने अंदर अपना राज महल बनवाया और बाहर एक नगर इस तरह से बसाया की कभी ये भारत की राजधानी भी हो सकता है. जहां तक दुकानों के बाहर नाम का सवाल है तो ये कल्चर पहले प्रेसीडेंसी टाउन यानी कोलकाता, चेन्नई व दिल्ली में हुआ करता था. जब जयपुर का संपर्क इन शहरों के साथ बढ़ा तो ये कल्चर वहां से जयपुर में भी आया. लगभग 1940 के आसपास जयपुर में दुकानों पर नाम लिखना शुरू हो गया था. कुछ लोग अपने ब्रांड को लेकर भी आगे बढ़े. इसके पीछे भेदभाव वाली सोच नहीं थी.