देहरादून: देश में इन दिनों लोकसभा चुनाव चल रहे हैं. उत्तराखंड में 19 अप्रैल को पहले चरण में वोटिंग होनी है. उससे पहले सभी सियासी दल मतदाताओं को लुभाने की कोशिश में जुटे हैं. मतदाताओं को लुभाने के साथ भी राजनीतिक दल जातीय समीकरण को भी साधने में जुटे हैं. देशभर में हिंदू, मुसलमान, तिलक तराजू और तलवार, पीडीए(पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक), एमवाई( मुसलमान, यादव) का गणित बनाकर वोटर्स को साधने की कोशिश की जा रही है. उत्तराखंड के चुनावों में ख और ब का गणित चलता है. क्या है ये 'ख' और 'ब' का गणित, आइये आपको बताते हैं.
बात अगर उत्तराखंड की राजनीति की करें तो ख और ब गणित सीएम, नेता प्रतिपक्ष, प्रदेश अध्यक्ष बनाते समय भी ध्यान में रखा जाता है. ये गणित इतना अहम है कि इससे कुमाऊं और गढ़वाल मंडल को साधा जाता है. विधानसभा, लोकसभा चुनाव में भी जमकर 'ख' और 'ब' का गणित चलता है. सीधे तौर पर कहे तो 'ख' और 'ब' के गणित से ही उत्तराखंड की राजनीति के समीकरणों को साधा जाता है.
क्या होता है ख-ब: उत्तराखंड की राजनीति में जिस ख और ब के गणित की बात हो रही है इसमें ख का अर्थ खस्या से हैं. खस्या को राजपूत, ठाकुरों से जोड़कर देखा जाता है. वहीं, ब का अर्थ ब्राह्मणों से है. उत्तराखंड में मंडल, क्षेत्र के साथ ही इन ख और ब का खास ध्यान रखा जाता है.
उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड गठन के बाद पहले विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण समाज से नारायण दत्त तिवारी सीएम बने. तब कांग्रेस ने हरीश रावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाया. वे ठाकुर हैं.
साल 2007 में भाजपा ने सरकार बनाई. तब भाजपा ने भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बनाया. भुवन चंद्र खंडूड़ी ब्राह्मण हैं. वहीं, ठाकुर नेता बची सिंह रावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाया. इसके बाद ब्राह्मण नेता रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री बने. तब ठाकुर नेता बिशन सिंह चुफाल बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बने.