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झारखंड विधानसभा चुनाव: क्या हेमंत सरकार पर एंटी इनकम्बेंसी डाल सकती है असर, क्या चौंकाने वाले आ सकते हैं नतीजे

झारखंड विधानसभा चुनाव में कौन सा फैक्टर काम करेगा, इस बात की चर्चा जोरों पर है. कौन कमजोर, कौन मजबूत यह भी चर्चा में है.

By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : 4 hours ago

POLITICAL EQUATIONS IN JHARKHAND
डिजाइन इमेज (ईटीवी भारत)

रांचीः चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव की घोषणा कर दी है. झारखंड में दो चरण में चुनाव होंगे. पहले फेज के लिए 13 नवंबर को 43 सीट और दूसरे फेज के लिए 20 नवंबर को 38 सीटों के लिए वोटिंग होगी. मतों की गिनती 23 नवंबर को होगी. खास बात है कि 2019 में झारखंड में 23 दिसंबर को मतों की गिनती हुई थी. इस लिहाज से पिछले चुनाव के मुकाबले एक माह पूर्व चुनाव के नतीजे आ जाएंगे.

चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही झारखंड में तमाम समीकरणों पर मंथन शुरू हो गया है. इस बात की चर्चा शुरु हो गई है कि क्या झारखंड में एंटी इनकम्बेंसी यानी सरकार विरोधी लहर दिख रही है. दरअसल, कई राज्यों में इसका असर भी दिखता है. कई बार वोटर इसे नकार देते हैं. हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है. राजनीति के सभी पंडित कह चुके थे कि हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बनेगी, लेकिन हुआ उल्टा. भाजपा ने जीत की हैट्रिक लगा दी. अब झारखंड में चुनाव होने जा रहा है. लिहाजा, सवाल उठना तो लाजमी है. झारखंड की राजनीति को गहराई से समझने वाले इसको कैसे देखते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर इसको कैसे देखते हैं. उनका मानना है कि अगर हेमंत जेल नहीं गये होते तो एंटी इनकम्बेंसी जरुर प्रभावी होता. क्योंकि तब तक हेमंत सोरेन सिर्फ कोरोना की दुहाई देकर बच रहे थे. लेकिन जेल जाते ही उनके साथ सहानुभूति जुड़ गयी है. ऊपर से उन्होंने मंईयां सम्मान योजना से आधी आबादी को बहुत हद तक साध लिया है. इसलिए झामुमो अपनी सीटों पर मजबूत दिख रहा है. लेकिन इंडिया गठबंधन में कांग्रेस सबसे कमजोर पक्ष बन गया है. राजेश ठाकुर के हाथ में पार्टी की कमान आने से गुटबाजी बढ़ी है. कांग्रेस ने केशव महतो कमलेश को और पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाया होता तो पार्टी को ज्यादा फायदा होता. ऊपर से सुबोधकांत सहाय जैसे नेता को अपनी राजनीति की चिंता ज्यादा रही है. लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी बेटी को लड़ा दिया. उसके बाद से दोनों नजर नहीं आए.

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर का मानना है कि हेमंत ने अपना काम कर दिया है. अब बूथ मैनेजमेंट इंजीनियरिंग की जरुरत है. यह काम अनुभवी नेता ही कर सकते हैं. अगर कांग्रेस इस काम में ओडिशा के भक्त चरण दास का इस्तेमाल करती है तो पार्टी को कोल्हान में फायदा हो सकता है. यह काम वर्तमान प्रभारी गुलाम अहमद मीर के बूते के बाहर की है. उनके साथ भाषाई समस्या भी है. ऐसे में राहुल गांधी को झारखंड में वक्त देना होगा. अभी से ही सीट बंटवारे को लेकर खींचतान दिख रही है. रही बात एनडीए की तो मुख्य घटक आजसू के लिए जयराम महतो परेशानी खड़ी करते दिख रहे हैं. इसका असर एनडीए पर पड़ सकता है.

वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ चौधरी का मानना है कि झारखंड में एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर नहीं दिख रहा है. युवाओं खासकर परीक्षार्थियों में थोड़ी नाराजगी जरूर है. इसका मतलब यह नहीं कि सारे युवा सरकार से नाराज हैं. इस बार इंडिया गठबंधन में कांग्रेस कमजोर कड़ी है. लेकिन झामुमो उस स्थिति में नहीं है कि अपने बूते कुछ कर दिखाए. पॉलिटिकल नरेशन में झामुमो मजबूत नजर आ रहा है. यहां यह भी समझना होगा कि 2019 के चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा था. फिर भी भाजपा को सीटों का नुकसान हुआ था. इसलिए सारा खेल विधानसभावार उम्मीदवारों के चयन पर निर्भर करेगा. क्योंकि इसबार भाजपा भी योजनाबद्ध तरीके से लड़ रही है.

झारखंड में आज तक किसी पार्टी को नहीं मिला बहुमत

साल 2014 तक झारखंड की राजनीति अस्थिरता से गुजरी है. पहली बार 2014 में रघुवर दास के नेतृत्व में बहुमत की सरकार बनी. तब भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. भाजपा 37 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. सहयोगी आजसू ने 05 सीटें जीती थी. लेकिन जेवीएम के आठ में से 06 बागी विधायकों के भाजपा में आने से 43 का मैजिक फिगर पूरा हो गया था. लिहाजा, पहली बार किसी सरकार ने झारखंड में पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. तब डबल इंजन वाली सरकार की दुहाई दी जाती थी. झारखंड को योजनाओं का लॉन्चिंग पैड कहा जाने लगा था. फिर भी 2019 में बाजी पलट गई. सीएम रहते खुद रघुवर दास अपनी सीट हार गये. भाजपा 25 पर सिमट गई.

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