बालाघाट: प्रकृति प्रेम और खुशहाली का पर्व भुजरिया यूं तो बुंदेलखण्ड में प्रमुखता से मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में भी इसकी धूम कुछ कम नहीं होती. आदिवासी वनांचल क्षेत्रों में यह पर्व बड़े ही धूमधाम से हर्षाेल्लास के साथ मनाया जाता है. भुजारिया पर्व का आदिवासी क्षेत्र से अलग ही जुड़ाव है. इसे कजलिया भी कहते हैं.
क्यों मनाया जाता है यह पर्व
अच्छी बारिश, अच्छी फसल, और सुख समृद्धि की कामना के लिए रक्षा बंधन के दूसरे दिन भुजरिया मनाया जाता है. इसे कजलियों का पर्व भी कहा जाता है. मंगलवार को भुजरियों का पर्व बडे़ ही धूमधाम से मनाया गया. कजलिया पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है. आईये जानते हैं इस पर्व के बारे में कि आखिरकार आदिवासी बाहुल्य अंचलों में कजलियां (भुजरिया) पर्व कैसे मनाया जाता है.
यह है मान्यता
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इसकी कहानी राजा आल्हा उदल की बहन से भी जुड़ी हुई है. बताया जाता है कि इस पर्व का प्रचलन राजा आल्हा के समय से है. कहा जाता है कि आल्हा कि बहन चंदा श्रावण मास में ससुराल से मायके आई तो नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था. महोबा के सपूत आल्हा उदल और मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से परिपूर्ण गाथाएं बुंदेलखण्ड की धरती पर बड़े चाव से सुनी व समझी जाती है.
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में मना भुजरिया पर्व
श्रावण मास के अंतिम दिन रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरियों का पर्व बालाघाट जिले के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में धूमधाम से मनाया गया. जहां पर पारम्परिक गीतों के साथ साथ आदिवासियों की खास प्रस्तूति शैला नृत्य की अनुपम झलक देखने मिली. आदिवासियों द्वारा शैला नृत्य खुशहाली की कामना के साथ किया जाता है. बताया जाता है कि इस नृत्य की प्रस्तूति से लोग अपनी खुशियों का इजहार करते हैं. इस नृत्य के माध्यम से आपसी भाईचारा व प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आराध्य देव से अच्छी बारिश अच्छी फसल और सुख समृध्दि की कामना की जाती है.