लखनऊ: उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक पुरानी परंपरा आज भी जीवित है, जो अंग्रेजों के दौर से चली आ रही है. मंत्री, अधिकारी, विधानसभा अध्यक्ष, विधान परिषद अध्यक्ष और नेता विरोधी दल के साथ चलने वाले अर्दली आज भी सिर पर पारंपरिक साफा सजाए हुए नजर आते हैं. यह साफा न केवल उनकी पहचान का प्रतीक है, बल्कि यह अनुशासन और परंपरा का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
उत्तर प्रदेश विधानसभा में पिछले 20 सालों से अर्दलियों का सिर पर साफा सजाने का काम प्रमोद कुमार गुप्ता कर रहे हैं. विधानसभा में ये अकेले कर्मचारी हैं, जिनको साफा बांधने आता है. उन्होंने बताया कि एक साल में तकरीबन 500/6 00 अर्दली के सिर पर साफा बांधते हैं. साफा बांधने का तरीका बेहद खास है. उत्तर प्रदेश शासन सभी अर्दली जो अनुसेवक पोस्ट पर हैं मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष, उपमुख्यमंत्री, प्रमुख सचिव, डीएम और एसडीएम के साथ रहते हैं, उनको साफा बांधना अनिवार्य होता है.
यूपी विधानसभा में ये पुरानी परंपरा आज भी चल रही. (video credit: etv bharat)
उन्होंने बताया कि यह साफा शासन द्वारा दिए जाता है, जिसमें 7 मीटर सफेद कपड़ा टोपी रेशम से बना हुआ पट्टी मखमल का सुर्ख कपड़ा और उत्तर प्रदेश का मोनोग्राम होता है. इसके बढ़ने का तरीका भी खास होता है. पहले टोपी पर सात परत सफेद कपड़ा लपेटते हैं. इसके ऊपर रेशम से बना हुआ एक पट्टी बांधते हैं और माथे की तरफ उत्तर प्रदेश सरकार का लोगों लगाया जाता है, जिसके नीचे सुर्ख मखमल का कपड़ा होता है. साफा में साथ परतें होती हैं.
उन्होंने बताया कि अर्दली जब तक मंत्री या जनप्रतिनिधि के साथ रहेगा, तब-तक वह अपने सिर पर यह साफा रखेगा. जनप्रतिनिधियों की अर्दलियों से खास पहचान होती है. इस साफे का बहुत बड़ा सम्मान होता है. इसको कोई दूसरा प्रयोग नहीं कर सकता है. आम इंसान के प्रयोग करने पर दंडनीय अपराध भी है.
ये है इतिहास:साफा पहनने की यह परंपरा अंग्रेजों के शासनकाल से शुरू हुई थी. रानी विक्टोरिया ने 1887 में शाही परिवार में भारतीय सेवकों को नियुक्त किया था. किंग एडवर्ड सप्तम ने 1901 में अपने राज्याभिषेक के दौरान भारतीय सेना के अधिकारियों की सेवाएं ली थीं. 1910 में, भारतीय ऑर्डरली अधिकारियों ने हाउसहोल्ड कैवेलरी और फुट गार्ड्स के अधिकारियों के साथ बारी-बारी से राजा के अंतिम दर्शन के दौरान काफीन के पास पहरा दिया.
रुडयार्ड किपलिंग ने इस घटना को अपनी कहानी "इन द प्रेजेंस" में भी वर्णित किया है. 1954 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने इस परंपरा को पुनः शुरू किया और गोरखा अधिकारियों को 'क्वीन की गोरखा ऑर्डरली ऑफिसर्स' के रूप में नामांकित किया.
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