नई दिल्ली : पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा राष्ट्रीय राजधानी की घेराबंदी करने के लगभग दो साल बाद, दिल्ली की सीमाएं मंगलवार को एक नए 'युद्धक्षेत्र' में बदल गईं, जहां किसान विरोध 2.0 ने शहर को फिर से 'रोक' दिया. किसानों ने 'चलो दिल्ली' मार्च शुरू किया, हालांकि इस बार किसानों की ताकत और तादाद के साथ मांगें भी कम हैं, यह 2020-21 के किसान विरोध प्रदर्शन से बिल्कुल अलग है. इस बार प्रदर्शनकारी किसानों की मुख्य मांग सभी खरीफ और रबी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी के अलावा 60 साल और उससे अधिक उम्र के किसानों के लिए 10,000 रुपये की पेंशन है.
खरीफ और रबी फसलों के लिए एमएसपी का मतलब होगा कि सरकार एक निश्चित मूल्य निर्धारित करेगी, ताकि किसानों को उनकी फसल की मात्रा और गुणवत्ता की परवाह किए बिना एक 'निश्चित' आय मिले. किसानों को सरकारी व्यवस्था का लाभ या कहें कि 'कानूनी ढाल' पाने का पूरा अधिकार है, लेकिन हर फसल के लिए एमएसपी न केवल राजनीतिक रूप से बल्कि आर्थिक रूप से भी संभव, टिकाऊ और उचित नहीं है.
सबसे पहले आर्थिक नतीजों की बात करें तो किसानों की मांग और सरकार के एमएसपी आवंटन के बीच वर्षों से एक बड़ा अंतर मौजूद रहा है. वित्त वर्ष 2020 में कृषि उपज का बाजार मूल्य 10 लाख करोड़ रुपये रहा और इसमें एमएसपी के दायरे में आने वाली सभी 24 फसलें शामिल थीं. हालांकि, उस वर्ष कुल एमएसपी खरीद 2.5 लाख करोड़ रुपये की ही थी, जो यह एमएसपी के तहत खरीद कुल उपज का सिर्फ 25% है.
यदि सरकार किसानों की कानून बनाने की मांग को मान लेती है, जिससे उसे गारंटी मिलती है, तो सरकारी खजाने पर सालाना कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आएगा. विशेष रूप से यह राशि बुनियादी ढांचे के विकास के लिए इस साल अंतरिम बजट में केंद्र सरकार के 11.11 लाख करोड़ रुपये के आवंटन के लगभग बराबर है.
इसके अलावा, यह राशि पिछले 7 वित्तीय वर्षों (2016-2023) में बुनियादी ढांचे पर वार्षिक औसत व्यय 67 लाख करोड़ रुपये से अधिक है. ऐसे में इन आंकड़ों तो सावधानीपूर्वक गौर से देखें तो पता चल जाएगा कि मौद्रिक आंकड़ों का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने से इसका निर्णय लेना आसान हो जाता है कि एमएसपी गारंटी कानून किसी भी तरह से उचित और आर्थिक रूप से व्यवहारिक भी नहीं होगा.