हैदराबाद: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं को गुजारा-भत्ता पाने का मौलिक अधिकार है. शीर्ष अदालत ने पूर्व पत्नी को अंतरिम गुजारा-भत्ता देने के निर्देश के खिलाफ मुस्लिम व्यक्ति की याचिका को खारिज करते हुए यह आदेश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट इस विशष पर विचार करने के लिए तैयार है कि क्या एक मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार है.
सीआरपीसी की धारा 125 क्या है:
सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जो एक व्यक्ति को अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण देने को कहती है, अगर वे खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं. यह धारा सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होती है, चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले हों. तलाकशुदा महिलाओं के लिए यह धारा पात्रता की कोई समय सीमा का उल्लेख किए बिना भरण-पोषण का दावा करने की अनुमति देती है, अगर वे खुद से अपना गुजारा नहीं कर सकती हैं.
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले
चर्चित शाह बानो मामला: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के मुद्दे का इतिहास 1985 से है, जब सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से उस समय फैसला सुनाया था कि सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है, जो मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है. हालांकि, समाज के कुछ वर्गों द्वारा इस फैसले को स्वीकार नहीं किया गया और इसे धार्मिक, व्यक्तिगत कानूनों पर हमले के रूप में देखा गया.
विवाद के बाद तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 को लागू करके अदालत के फैसले को रद्द करने का प्रयास किया. यह अधिनियम में मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को तलाक के 90 दिनों (इद्दत अवधि) तक सीमित कर दिया गया था.
2001:साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन आदेश पारित किया कि तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने का पुरुष का दायित्व तब तक जारी रहेगा, जब तक वह दोबारा शादी नहीं कर लेती या खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हो जाती.
मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 की संवैधानिक वैधता को वर्ष 2001 में डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई.
सुप्रीम कोर्ट ने विशेष कानून की वैधता को बरकरार रखा. हालांकि यह स्पष्ट किया कि 1986 के अधिनियम के तहत तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए मुस्लिम पति का दायित्व इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है.
2007:साल 2007 में इकबाल बानो बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कोई भी मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर नहीं कर सकती.
2009:शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने माना कि अगर मुस्लिम महिला का तलाक हो चुका है, फिर भी वह इद्दत अवधि समाप्त होने के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह दोबारा शादी नहीं कर लेती.
2015: शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बहाल किया, जिसमें तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने का अधिकार दिया गया था.