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प्रदूषण नहीं खेतों में हरियाली लाएगी पराली! बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने बनाई खास मशीन - PARALI DISPOSAL MACHINE

रांची के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पराली के निष्पादन की मशीन बनाई है.

Birsa Agricultural University Scientists developed machine for straw disposal in Ranchi
ग्राफिक्स इमेज (Etv Bharat)

By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Jan 24, 2025, 6:10 PM IST

रांची: देश की राजधानी नई दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में पराली के धुएं से होने वाला प्रदूषण हर साल सुर्खियों में होता है. पराली की वजह से पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों खराब होता है. आलम ऐसा होता है कि एकड़-एकड़ के खेत जला दिए जाते हैं, जिससे धुआं कई दिनों तक निकलता रहता है. कई वर्षों से इनके निष्पादन पर काम किया जा रहा है.

ऐसे में झारखंड के बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अभियंत्रण विभाग के वैज्ञानिकों के एक सफल प्रयोग ने उम्मीद की बड़ी किरण दिखाई है. अब तक एक बड़ी समस्या के रूप में देखे जा रहे धान, गेंहू, मक्का और अन्य अनाजों के अवशेष अब निपटारे की ओर है. इससे प्रदूषण नहीं फैलेगा और पराली के निष्पादन के बाद जो अवशेष बायोचार बचेंगे वह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ा कर खेतों में हरियाली लाएगा.

ईटीवी भारत की ग्राउंड रिपोर्टः चलंत बायोचार किल्न पर डॉ. उत्तम कुमार के साथ खास बातचीत (ETV Bharat)

BAU का चलंत बायोचार किल्न

बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अभियंत्रण विभाग के सहायक प्रबंधक डॉ. उत्तम कुमार की देखरेख में इस मशीन का निर्माण किया गया है. कृषि अभियंत्रण के वैज्ञानिकों ने भारत सरकार की कृषि एवं कृषि आधारित उद्योगों में ऊर्जा से संबंधित अखिल भारतीय अनुसंधान परियोजना के तहत एक उपकरण तैयार किया है. जिसमें पराली या क्रॉप अवशेष को बेहद कम ऑक्सीजन में एक ऐसे उत्पाद में बदल दिया जाता है जो राख से पहले वाला स्टेज (चारकोल जैसे टुकड़े) होता है. यह खेतों में उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में बेहद मददगार होता है.

महज 10-15 हजार रुपये में तैयार होता है मशीन

बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अभियंत्रण विभाग के सहायक प्रध्यापक डॉ. उत्तम कुमार ने कहा कि हमारे विभाग द्वारा बनाये गए "बीएयू चलंत बायोचार किल्न" को बनाने में 10 से 15 हजार रुपये की लागत आयी है. इसमें पराली के जलाने में बेहद कम यानी सीमित मात्रा में आक्सीजन का इस्तेमाल होता है. ऐसे में पहला तो इस प्रक्रिया में धुआं कम निकलता है और ऑक्सीजन कम होने के कारण यह राख में न बदलकर टुकड़े में रह जाता है.

चलंत बायोचार किल्न का खासियत (ETV Bharat)

एक चक्र पूरा होने में लगता है 80 से 100 मिनट का समय

BAU के वैज्ञानिक डॉ. उत्तम कुमार कहते हैं कि "बायोचार किल्न" से एक बार में 05 किलो धान का पुआल या 07 किलो गेंहू के डंठल या 08 किलो मक्का के डंठल का प्रयोग किया जा सकता है. इनको सीमित मात्रा में आक्सीजन की उपस्थिति में कंबशन के बाद जो "बायोचार" शेष बचता है वह करीब 40% होता है. 10 किलो पुआल से 04 किलो बायोचार बनता है. हर दिन चार सेशन में इस मशीन से बायोचार बनाया जा सकता है.

BAU के नए उत्पाद को मिल चुका है पेटेंट

अनाज के अवशेष या पुआल से बायोचार बनाने वाले इस बेहद उपयोगी रिसर्च को पेटेंट भी मिल चुका है. अब BAU प्रबंधन नियमानुसार इस यंत्र के निर्माण के लिए मैन्युफैक्चरर के साथ MoU किया जाएगा. उन्होंने कहा कि यह यंत्र बेहद बढ़िया काम कर रहा है और यह जल्द से जल्द किसानों तक पहुंचे इसकी कोशिश विश्वविद्यालय करेगा.

चलंत बायोचार किल्न मशीन (ETV Bharat)

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