पुरोलाः एक ओर जहां देश 74वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है तो वहीं, दूसरी ओर एक युवती ने इलाज के अभाव में ही दम तोड़ दिया है. जी हां, पुरोला तहसील के सरबडीयार क्षेत्र की लेवटाड़ी गांव में एक युवती अचानक तबीयत खराब हो गई. जिसके बाद परिजन उसे कंडी में बिठाकर पैदल ही 10 किलोमीटर की दूरी उफनती नदी-नालों और घनघोर जंगलों के बीच से तय कर सड़क तक पहुंचाया. जहां से उसे अस्पताल तो ले गए, लेकिन तब तक युवती दम तोड़ चुकी थी.
भले ही सरकार अंतिम गांव तक विकास पहुंचाने के लाख दावे करती हो, लेकिन धरातल पर ठीक उलट है. आजादी के 7 दशक और राज्य गठन के 20 साल बाद भी दूरस्थ क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंच पाई है. इसकी बानगी पुरोला तहसील के सरबडीयार क्षेत्र में देखने को मिल रही है. इस क्षेत्र में आठ गांव हैं और तकरीबन 35 सौ से ज्यादा लोग निवास करते हैं, लेकिन विडंबना तो देखिए आज तक इस क्षेत्र में सड़क, संचार, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं मिल पाई है.
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यहां तक की गांव तक आने-जाने के लिए एक अदद सुरक्षित रास्ते तक नहीं बनाए गए हैं. लिहाजा, ग्रामीणों को उफनती और बरसाती नालों को पार कर तहसील मुख्यालय पहुंचने के लिए 25 किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करनी पड़ती है. जिसका खामियाजा लेवटाड़ी गांव की 20 वर्षीय कंचन को जान देकर भुगतना पड़ा है.
जानकारी के मुताबिक, कंचन की बीते दिन पहले गले और पेट में दर्द की शिकायत थी. जिसका घर पर ही देखभाल की जा रही था, लेकिन उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई. जिसके बाद ग्रामीणों ने डंडी-कंडी में बिठाकर 10 किलोमीटर की दूरी उफनती नदी नालों और घनघोर जंगलों के बीच पैदल ही तय कर मुख्य सड़क मार्ग तक पहुंचाया. जहां से युवती को करीब 20 किमी दूर बड़कोट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाया. जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.
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सरबडीयार क्षेत्र के 8 गांव के लोग आज भी आदिम जीवन जीने को मजबूर हैं. लंबे जद्दोजहद और प्रयास के बाद सरकार ने एक आयुर्वेदिक अस्पताल तो खोला, लेकिन डॉक्टर की तैनाती करना भूल गई. इस अस्पताल को भी एक फार्मेसिस्ट के भरोसे छोड़ दिया. आलम तो देखिए फार्मेसिस्ट भी ईद की चांद की तरह कभी-कभी ही दिखता है.
आजाद भारत के गांव का यह हाल किसी से छुपा नहीं है. पुरोला और मोरी विकासखंड के ज्यादातर गांव सड़क, संचार और अस्पताल की सुविधा से वंचित हैं. कंचन के साथ हुई घटना पहली नहीं है, यहां अब तक कई लोग जान गंवा चुके हैं. मामले में सरकार के नुमाइंदे सिर्फ कागजों में ही विकास दिखाकर राजनीतिक आकाओं को खुश करते हैं. वहीं, राजनीति करने वाले लोग सिर्फ चुनाव में वोट बैंक के लिए इन गांवों की ओर रुख करते हैं. चुनाव के बाद शायद ही उन्हें क्षेत्र का नाम याद हो.