पुरोला: आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर अपने मवेशियों के साथ जंगल में जीवन यापन करने वाले गुर्जर समुदाय के लोग आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवन यापन करने को मजबूर हैं. उक्त समुदाय के लोगों के अनुसार उन्हें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि कईं बार जंगली जानवरों से भी खतरा बना रहता है. इन समुदायों को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारें कई योजनाएं तो बनाती है, लेकिन योजनाएं धरातल में नहीं उतर पाती है. जिससे वर्षों से गुर्जर समुदाय के लोग मुफलिसी का जीवन जीने को मजबूर हैं.
गौर हो कि गुर्जर समुदाय के लोगों को इतिहासकारों ने कभी सूर्यवंशी, रघुवंशी, रघुग्रामीन तो राजस्थान में मिहिर शब्दों से इनकी पहचान समाज के सामने लाने की कोशिश की. आज यह समुदाय अपनी पहचान और स्थाई पहचान की मांग कर रहे हैं. जिससे आने वाली पीढ़ी को दर-दर की ठोकर न खानी पढ़ें. अतीत से ही गुर्जर समुदाय के लोग छोटे छोटे कबीलों में रहकर जंगलों में अपने मवेशियों के साथ ही अपना जीवन यापन करते आ रहे हैं. समुदाय के लोगों का मुख्य कार्य पशु पालन रहा है.
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जिससे वे अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं. लेकिन वन कानून से इनका क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, एक ओर जहां इनके परिवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. वहीं जंगलों में मवेशियों के चुगान के लिये वही सन 1960 का परमिट ही लागू है. जिस कारण इनके आगे रोजी- रोटी का संकट पैदा हो रहा है. वहीं इस समुदाय में शिक्षा की बात की जाए तो कई बच्चे आज भी तालीम नहीं ले पाते हैं. जिससे इनकी शिक्षा का स्तर नहीं बढ़ पाता है. राज्य में घुमंतु गुर्जर समुदाय के लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है. अब ये लोग सरकार से एक अदद आशियानें की मांग कर रहे हैं.
जिससे उनकी बच्चों की शिक्षा और परिवार की स्थिति बेहतर हो सकें. हालांकि पिछली सरकारों ने इनके विस्थापन व बचों को पढ़ाने की पहल की लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. सरकारों ने न्यायालय के उस आदेश को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया जिस में इन्हे विस्थापित कर अन्य नागरिकों की तरह सरकारी सुविधाएं दिए जाने के आदेश दिए थे. जहां एक ओर सरकार "सबक साथ सबका विकास" का नारा तभी बुलंद कर रही है. वहीं सवाल उठता है कि इस समुदाय का समुचित विकास कब होगा? जो आज भी आदिम युग में जीने को मजबूर है.