काशीपुर: पर्यटन विभाग की ओर से उत्तराखंड में बनाए जा रहे पर्यटन शंकर सर्किट में काशीपुर के प्राचीन मोटेश्वर महादेव मंदिर को शामिल किया गया है. अब विभाग इसकी डीपीआर बनाने में जुटा हुआ है. इसके अलावा 13 जिले, 13 डेस्टिनेशन के तहत मंदिर परिसर के पास पार्क, स्ट्रीट लाइट और लोगों के बैठने के लिए बेंच भी लगाई जाएंगी.
पर्यटन विभाग की ओर से उत्तराखंड में बनाए जा रहे पर्यटन शंकर सर्किट में काशीपुर के प्राचीन मोटेश्वर महादेव मंदिर को शामिल किया गया है. जिसके बाद अब मंदिर परिसर में सौंदर्यीकरण कार्य किया जाएगा. इसके साथ ही डिस्प्ले लगाकर प्रदेश के सभी प्रमुख शिव मंदिरों के इतिहास सहित तमाम जानकारियां दी जाएंगी. पर्यटन विभाग की ओर से बनाए जाने वाले शिव सर्किट में प्रसिद्ध जागेश्वर धाम सहित सभी प्राचीन ज्योतिर्लिंग शिव मंदिरों को शामिल किया गया है.
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महाभारत कालीन काशीपुर के मोटेश्वर महादेव मंदिर को महाराष्ट्र के भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का रूप माना जाता है. शिव सर्किट में शामिल होने के बाद यहां विभिन्न कार्य किए जाएंगे. पर्यटन विभाग के अनुसार मोटेश्वर महादेव परिसर में सौंदर्यीकरण के लिए जरूरी कार्यों की सूची बनाकर डीपीआर बनाने की कार्यवाही की जायेगी.
मंदिर की मान्यता: यह मंदिर महाभारत कालीन बताया जाता है और इसका शिवलिंग बारहवां उपज्योतिर्लिंग माना जाता है. शिवलिंग की मोटाई अधिक होने के कारण यह मोटेश्वर महादेव मंदिर के नाम से विख्यात है. स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव ने कहा कि जो भक्त कांवड़ कंधे पर रखकर हरिद्वार से गंगा जल लाकर यहां चढ़ाएगा, उसे मोक्ष मिलेगा. इसी मान्यता के कारण लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर यहा लोग कांवड़ चढ़ाते हैं. मोटेश्वर महादेव मंदिर दूसरी मंजिल पर है. इस शिवलिंग के चारों ओर तांबे का फर्श बना है और इसे जागेश्वर के एक कारीगर ने बनाया था. शिवलिंग की मोटाई अधिक होने के कारण इसे कोई अपने दोनों हाथों से घेर नहीं पाता है.
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जमीन पर टिका हैं शिवलिंग: मान्यतानुसार यह शिवलिंग स्थापित नहीं है, बल्कि जमीन से टिका है. यह मूल रूप से महाराष्ट्र स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का ही रूप है. कई लोगों ने इसकी गहराई नापने की कोशिश की लेकिन नहीं नाप सके. लोगों का अनुमान है कि शिवलिंग की गहराई लगभग 30 फुट है. पहले इसका भूतल खुला था, किन्तु 1942-43 में मंदिर के भूतल में भगदड़ मचने से तीन-चार लोगों की मृत्यु हो गई थी, तब से नीचे किसी को नहीं जाने दिया जाता है. अब ऊपरी मंजिल पर मंदिर है.
कहते हैं पहले मंदिर का फर्श शुद्ध पीतल का था. तब एक श्रद्धालु ने उसके स्थान पर जयपुर से बैलगाड़ियों पर संगमर्मर का पत्थर मंगाकर लगवाया और पीतल को गलाकर उसका घंटा बनवा कर लगवा दिया. मंदिर की अन्दरूनी दीवारें कई कोणों में बनी हैं. बहुत से श्रद्धालुओं ने कई बार मंदिर का जीर्णोद्धार किया. 1980 में सेठ मूलप्रकाश की मन्नत पूरी होने पर उन्होंने संपूर्ण मंदिर का जीर्णोद्धार कराया.
यहां के पुजारी के अनुसार यह मंदिर द्वापरयुगीन हैं. मान्यता है कि गुरु द्रोणाचार्य गोविषाण में कौरव-पांडवों को शिक्षा दे रहे थे, तभी द्रोणाचार्य को शिवलिंग दिखाई दिया. तब भीम ने वहां पर मंदिर बनाकर द्रोणाचार्य को गुरुदक्षिणा में दिया था. किसी समय इस मंदिर को घेरे हुए 120 शिव मंदिर थे. एक गुजराती नागर ब्राह्मण परिवार नौ पीढ़ियों से मंदिर की सेवा कर रहा हैं. उन्ही के अनुसार बुक्शा जनजाति के लोगों के कुल देवता महादेव हैं. यह भी मान्यता है कि यह शिवलिंग भगवाण राम के जन्म से भी पहले का है और यहां माता सीता ने भी तपस्या और अर्चना की थी.