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खटीमा गोलीकांड की 25वीं बरसी: आज भी शहीदों के परिजन दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर

उत्तराखंड राज्य बने जहां 19 साल बीत चुके हैं. वहीं, राज्य निर्माण के लिए सबसे पहली शहादत खटीमा की जमीं से हुई थी. साल 1994 में उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए जहां पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था.

शहीद परमजीत सिंह के पिता.
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Published : Sep 1, 2019, 12:48 PM IST

Updated : Sep 1, 2019, 1:36 PM IST

खटीमा: पृथक राज्य की मांग को लेकर खटीमा गोलीकांड में 7 आंदोलनकारियों ने अपनी शहादत दी थी. एक सितंबर 1994 को उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर खटीमा की सड़कों पर उतरे हजारों आंदोलनकारियों पर बरसी गोलियों को 25 बरस हो गए हैं. जिसे याद कर आज भी लोगों के जेहन में सिरहन पैदा हो जाती है. वहीं उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए हो रहे आंदोलन में अपनी जान देने वाले शहीदों के परिजन आज भी सरकार से सम्मान की नहीं मिल पाया जो उन्हें मिलना चाहिये था.

खटीमा गोलीकांड की 25वीं बरसी.

गौर हो कि उत्तराखंड राज्य बने जहां 19 साल बीत चुके हैं. वहीं, राज्य निर्माण के लिए सबसे पहली शहादत खटीमा की जमीं से हुई थी. साल 1994 में उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए जहां पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था. सीमांत क्षेत्र खटीमा में 1 सितम्बर 1994 को हजारों की संख्या में राज्य निर्माण की मांग को लेकर पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों तक को लेकर सड़कों पर उतर आयी थीं.

खटीमा के तत्कालीन पुलिस इंस्पेक्टर डीके केन द्वारा खुलेआम गोली चलाई गई थी. इस गोलीकांड में सात आंदोलनकारी शहीद हो गए थे और सैकड़ों लोग घायल हुए थे. इस घटना ने सबको झकझोर दिया था और आंदोलन को चिंगारी को भड़का दिया था. जिसके बाद उग्र हुए आंदोलन के फलस्वरूप साल 2000 में राज्य का निर्माण हुआ.

पढ़ें-CM हेल्पलाइन का अधिकारियों को दिया गया प्रशिक्षण, एक सप्ताह में होगा समस्याओं का निस्तारण

राज्य निर्माण के लिए हो रहे आंदोलन को दबाने के लिए खटीमा हुए गोलीकांड में अपनी जान देने वाले शहीद परमजीत सिंह अपने मां-बाप की इकलौती संतान थे. पुत्र की मौत के बाद दर-दर भटकते सरदार नानक सिंह आज बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर हैं. शहीद के माता-पिता किराए के मकान में रह रहे हैं. यह 75 साल से ऊपर की उम्र में किसी तरीके से अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं. नानक सिंह का कहना है कि उन्हें अपने पुत्र की शहादत पर गर्व है.

लेकिन वही अफसोस कि बात है कि उन्हें सरकार हर साल शहीद दिवस पर उन्हें बुलाकर फूल माला पहनाकर सम्मान तो देती है. लेकिन उनके जीवन यापन के लिए कोई मदद नहीं करती है. वहीं, इतने साल बीत जाने के बाद भी शहीदों के सपनों का उत्तराखण्ड नहीं बन पाया है. वहीं सरकारें शहीदों के बलिदान को भूल चुकी हैं.

खटीमा: पृथक राज्य की मांग को लेकर खटीमा गोलीकांड में 7 आंदोलनकारियों ने अपनी शहादत दी थी. एक सितंबर 1994 को उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर खटीमा की सड़कों पर उतरे हजारों आंदोलनकारियों पर बरसी गोलियों को 25 बरस हो गए हैं. जिसे याद कर आज भी लोगों के जेहन में सिरहन पैदा हो जाती है. वहीं उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए हो रहे आंदोलन में अपनी जान देने वाले शहीदों के परिजन आज भी सरकार से सम्मान की नहीं मिल पाया जो उन्हें मिलना चाहिये था.

खटीमा गोलीकांड की 25वीं बरसी.

गौर हो कि उत्तराखंड राज्य बने जहां 19 साल बीत चुके हैं. वहीं, राज्य निर्माण के लिए सबसे पहली शहादत खटीमा की जमीं से हुई थी. साल 1994 में उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए जहां पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था. सीमांत क्षेत्र खटीमा में 1 सितम्बर 1994 को हजारों की संख्या में राज्य निर्माण की मांग को लेकर पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों तक को लेकर सड़कों पर उतर आयी थीं.

खटीमा के तत्कालीन पुलिस इंस्पेक्टर डीके केन द्वारा खुलेआम गोली चलाई गई थी. इस गोलीकांड में सात आंदोलनकारी शहीद हो गए थे और सैकड़ों लोग घायल हुए थे. इस घटना ने सबको झकझोर दिया था और आंदोलन को चिंगारी को भड़का दिया था. जिसके बाद उग्र हुए आंदोलन के फलस्वरूप साल 2000 में राज्य का निर्माण हुआ.

पढ़ें-CM हेल्पलाइन का अधिकारियों को दिया गया प्रशिक्षण, एक सप्ताह में होगा समस्याओं का निस्तारण

राज्य निर्माण के लिए हो रहे आंदोलन को दबाने के लिए खटीमा हुए गोलीकांड में अपनी जान देने वाले शहीद परमजीत सिंह अपने मां-बाप की इकलौती संतान थे. पुत्र की मौत के बाद दर-दर भटकते सरदार नानक सिंह आज बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर हैं. शहीद के माता-पिता किराए के मकान में रह रहे हैं. यह 75 साल से ऊपर की उम्र में किसी तरीके से अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं. नानक सिंह का कहना है कि उन्हें अपने पुत्र की शहादत पर गर्व है.

लेकिन वही अफसोस कि बात है कि उन्हें सरकार हर साल शहीद दिवस पर उन्हें बुलाकर फूल माला पहनाकर सम्मान तो देती है. लेकिन उनके जीवन यापन के लिए कोई मदद नहीं करती है. वहीं, इतने साल बीत जाने के बाद भी शहीदों के सपनों का उत्तराखण्ड नहीं बन पाया है. वहीं सरकारें शहीदों के बलिदान को भूल चुकी हैं.

Intro:summary- उत्तराखंड राज्य के लिए जान देने वाले शहीद के माता पिता राज्य सरकार की बेरुखी के चलते गरीबी में जीवन यापन करने को है मजबूर।

नोट-खबर एफटीपी में - shaheed ke parijano ki peeda- नाम के फोल्डर में है।

एंकर- उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए हो रहे आंदोलन में अपनी जान देने वाले शहीदों के परिजन आज भी सरकार से सम्मान की तके रहे है राह। सरकार से मदद की गुहार लगा रहे सहित के परिजनों की व्यथा पर एक रिपोर्ट-


Body:वीओ- उत्तराखंड राज्य बने जहां 19 वर्ष हो चुके हैं। वहीं राज्य निर्माण के लिए सबसे पहली शहादत खटीमा की धरती पर दी गई थी। सन् 1994 में उत्तराखंड राज्य के निर्माण के लिए जहां पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था। वही खटीमा में 1 सितम्बर 1994 को हजारों की संख्या में राज्य निर्माण की मांग को लेकर भूतपूर्व सैनिकों, छात्रों और व्यापारियों द्वारा जुलूस निकाला जा रहा था। जिस पर खटीमा के तत्कालीन पुलिस इंस्पेक्टर डीके केन द्वारा खुलेआम गोली चलाई गई थी। इस गोलीकांड में सात आंदोलनकारी शहीद हो गए थे, और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। जिसके बाद उग्र हुए आंदोलन के फलस्वरूप सन् 2000 में राज्य का निर्माण हुआ।
राज्य निर्माण के लिए हो रहे आंदोलन को दबाने के लिए खटीमा हुए गोलीकांड में अपनी जान देने वाले शहीद परमजीत सिंह अपने मां-बाप की इकलौती संतान थे। पुत्र की मौत के बाद दर-दर भटकते सरदार नानक सिंह आज बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर है। शहीद के माता-पिता किराए के मकान में रह रहे हैं, यह 75 साल से ऊपर की उम्र में किसी तरीके से अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं । नानक सिंह का कहना है कि उन्हें अपने पुत्र की शहादत पर गर्व है। लेकिन वही अफसोस है कि उन्हें सरकार हर साल शहीद दिवस पर उन्हें बुलाकर फूल माला पहनाकर सम्मान तो देती है लेकिन उनके जीवन यापन के लिए कोई प्रयास नहीं करती है।

बाइट-नानक सिंह गोली कांड के शहीद परमजीत सिंह के पिता


Conclusion:
Last Updated : Sep 1, 2019, 1:36 PM IST
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