टिहरी: उत्तराखंड को देवों की भूमि भी कहा जाता है. देश-विदेश से लोग आध्यात्मिक शांति के लिए यहां आते हैं. यहां चारधाम, पंच बदरी, पंच केदार, पंच प्रयाग और 52 सिद्धपीठ जैसे तीर्थ स्थल है. इन्हीं में एक हैं सुरकंडा देवी. जिसके बारे में मान्यता है कि यहां आने वाले भक्तों की मां हर मनोकामना पूर्ण करती हैं. इस 35वां सुरकंडा सिद्धपीठ का स्कन्द पुराण के केदारखंड में वर्णन किया गया है.
यहां बड़ी संख्या में लोग माता का दर्शन करने आते हैं. धार्मिक मान्यता और पौराणिक कथा अनुसार दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया. जिसमें सभी देवी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन उन्होंने अपनी पुत्री सती और दामाद भगवान शिव को नहीं बुलाया. जिसके बावजूद सती अपने पिता के यहां चली गई, लेकिन राजा दक्ष ने सती और महादेव का अपमान किया.
जिससे दुखी होकर उन्होंने खुद को यज्ञ कुंड में जला डाला, इससे दक्ष प्रजापति के यज्ञ में उपस्थित शिव गणों ने भारी उत्पात मचाया. शिव गणों ने भगवान शिव को सूचना दी. जिसके बाद शिव कैलाश पर्वत से यज्ञ के पास पहुंच तो अपनी पत्नी की निर्जीव अस्थि पंजर देखकर क्रोधित हो गए. शिव अपनी सती की अस्थि पंजर देखकर सुध-बुध खो बैठे. शिव सती की शरीर कंधे पर उठा कर हिमालय की ओर चलने लगे, शिव को इस प्रकार देखकर भगवान विष्णु ने विचार किया कि शिव सती मां के मोह के कारण सृष्टि का अनिष्ट हो सकता है. इसलिए भगवान विष्णु ने सृष्टि कल्याण के लिए अपने सुदर्शन चक्र से मां सती के निर्जीव अंगों को काट दिए.
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जहां-जहां सुदर्शन चक्र से कटकर मां सती के अंग गिरे वह स्थान सिद्ध पीठ हो गए. मान्यता है कि उत्तराखंड के टिहरी में माता का सिर का भाग गिरा था, जिसे सुरकंडा के नाम से जाना जाता है. वहीं, चंद्रबदनी में बदन का भाग गिरा था, इसलिए चंद्रबदनी सिद्धपीठ के रूप में जाना जाता है.
वहीं, जहां माता के नैन गिरे नह नैना देवी सिद्धपीठ मंदिर कहा जाने लगा, इसी तरह जहां-जहां मां सती के शरीर के भाग गिरते गए, उसी नाम से प्रसिद्ध सिद्धपीठ बनते गए. जहां आज भी इन सिद्धपीठों में लोगों की बड़ी आस्था है. टिहरी के लोग सुरकंडा देवी को अपना कुलदेवी मानते है.
कहा जाता है कि जब भी किसी बच्चे पर बाहरी छाया, भूतप्रेत आदि लगा हो तो कुंजापुरी सिद्धपीठ के हवन कुंड की राख का टीका लगाने मात्र से कष्ट दूर हो जाता है. अगर किसी को बच्चे नहीं होते हैंतो यहां पर हवन करने से मनोकामना पूरी हो जाती है. जिनकी शादी होने में दिक्कत आती हों तो मंदिर के प्रांगण में उगे रांसुली के पेड़ पर माता की चुन्नी बांधते हैं.
यह भी मान्यता है कि जब यहां पर देहरादून से धनौल्टी पैदल लोगों का आना जाना था. उस समय यहां पर लोग पीठ पर सामान लेकर चलते थे. उसी समय एक असहाय वृद्ध महिला ने पैदल चल रहे लोगों से ऊपर चोटी तक ले जाने के लिए मदद मांगी तो किसी भी राहगीर ने उसकी मदद नहीं की. एक आनंद जड़धारी नाम के राहगीर था, जिसके पीठ पर सामान था. उस राहगीर ने उस वृद्ध महिला को कहा कि आओ मेरी पीठ पर बैठ जाओ. मैं आपको चोटी तक ले जा लूंगा.
जैसे ही वह महिला उस राहगीर के पीठ पर बैठी तो पीठ का सामान पूरा हल्का हो गया. आनंद जड़धारी कुछ समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों हुआ. उसके दूसरे दिन वही वृद्ध महिला उस राहगीर के सपने में आई और उसने बताया कि सुरकंडा नाम की जगह पर जाना और वहां पर खुदाई करना, मेरी शिला यही पर दबी है. उसके बाद आनंद जड़धारी वहां गए और खुदाई की तो शिला मिली, तब से आज तक जड़धारी के वंशज ही यहां के पुजारी हैं.