रुद्रप्रयाग: सुरम्य मखमली बुग्यालों में छ माह प्रवास करने वाले चारवाहों ने लाई मेला इस बार बड़ी सादगी से मनाया. कोविड-19 के कारण इस बार सीमित संख्या में ग्रामीणों ने इस मेले में प्रतिभाग किया. वहीं, इस मेले के बाद चारवाहे दोबारा बुग्यालों की ओर रवाना हो गये. ऐसे में अब परंपरा के अनुसार दीपावली के बाद ही चारवाहे अपने गांव लौटेंगे.
कई दशकों से चली आ रही परम्परा के अनुसार भेड़ पालक अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह अपने गांवों से सुरम्य मखमली बुग्यालों की ओर रवाना हो जाते हैं तथा भाद्रपद की पांच गते को लाई मेले की परम्परा है. इसी परम्परा के तहत गुरुवार को भेड़ पालकों द्वारा बूढा मद्महेश्वर, काली शिला, पाली कांठा, पय्यालाल, टिगरी, चिलौण्ड, उनियाणा, रांसी, गडगू सहित सीमान्त गांवों के ऊपरी हिस्सों में लाई मेला सादगी से मनाया.
लाई मेले में मांगल गीतों के साथ भेड़ की ऊन छटाई व भेड़ पालकों के आपसी लेन-देन के भुगतान की परम्परा है. हर साल मेले को लेकर भेड़ पालकों व ग्रामीणों में भारी उत्साह बना रहता था, मगर इस वर्ष वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण भेड़ पालकों व ग्रामीणों में कम उत्साह देखा गया. लाई मेला शीत ऋतु का घोतक भी माना जाता है. पौराणिक कहावत है कि लाई मेले के बाद सर्दी शुरू हो जाती है. लाई मेले के आयोजन के बाद भेड़ पालक दोबारा बुग्यालों की ओर चले जाते हैं तथा छह माह प्रवास के बाद हीं गांव लौटते हैं.
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चारवाह प्रेम सिंह ने बताया कि पूर्व में लाई मेले के आयोजन को लेकर भेड़ पालकों व ग्रामीणों में भारी उत्साह बना रहता था, मगर धीरे-धीरे भेड़ पालन व्यवसाय कम होने से लाई मेले की रौनक भी गायब हो गई. वहीं, लाई मेले से पूर्व दाती त्योहार मनाने की परम्परा भी है.
जिला पंचायत सदस्य विनोद राणा ने बताया कि लाई मेला भेड़ पालकों का मुख्य त्योहार है तथा आने वाले समय में लाई मेले को भव्य रूप देने के प्रयास किये जाएंगे. मद्महेश्वर घाटी विकास मंच अध्यक्ष मदन भट्ट का कहना है कि लाई त्योहार भेड़ पालकों के लिए ऊन छटाई का त्योहार है, मगर भेड़ों की ऊन की मार्केटिंग न होने से भेड़ पालकों को खासा नुकसान हो रहा है.