पिथौरागढ़: पर्वतीय क्षेत्रों के कई रसीले फल यहां की संस्कृति और लोकगीतों में आज भी बसे हुए हैं. जिनके मुरीद स्थानीय ही नहीं देश-विदेश से आने वाले सैलानी भी हैं. इसी में सें एक फल है काफल, जो अपने खट्टे- मीठे स्वाद के कारण लोगों द्वारा काफी पसंद किया जाता है. इन दिनों पर्वतीय क्षेत्रों के बाजारों में ये फल अपनी दस्तक दे चुका है. जिसके स्वाद की दीवानी कई राजनीतिक हस्तियां भी रही हैं.
गौर हो कि देवभूमि के पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला रसीला फल काफल बाजार में उतर आया है. जो इनदिनों पहाड़ के हर स्टेशन में बिक रहा है. काफल का खट्टा-मीठा स्वाद लोगों को काफी पसंद है. इसके साथ ही काफल में कई औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. वहीं, कुमाऊं के बाजार में इस फल की डिमांड काफी बढ़ गई है. साल 1950 में 'बेडु पाको बारा मासा, ओ नरैणा काफल पाको चैता मेरी छैला' लोकगीत ने इस फल को देश ही नहीं विदेशों में भी पहचान दिलाई. सोवियत संघ के दो बड़े नेता ख्रुश्चेव और बुल्गानिन के भारत आगमन पर स्वर्गीय मोहन चंद्र उप्रेती और उनकी टीम द्वारा ये गीत गाया गया था. जिसकी धुन पर ख्रुश्चेव भी नाचने पर मजबूर हो गए थे.
काफल पर रचा गया ये गीत तभी से उत्तराखंडी संस्कृति का प्रतीक बना हुआ है. बताया जाता है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू खासतौर पर इस फल को खाने के लिए उत्तराखंड दौरे पर आए थे. मान्यता है कि जब भगवान राम वनवास में थे तब मां सीता ने इस फल को खाया और काफी पसंद भी किया. तभी से इस फल का नाम "गौरी फल" भी पड़ा. ये फल इन दिनों बाजारों की शान बना हुआ है. खट्टे-मीठे स्वाद को खुद में समेटा ये फल हर किसी की जुबां को खूब भाता है.
पहाड़ में ये फल कई परिवारों की आमदनी का स्रोत बनता जा रहा है. ये वृक्ष मोमबत्ती, पोलिश और साबुन बनाने के काम भी आता है. चैत और बैसाख के महीने काफल 5000 फीट की ऊंचाई में पाया जाता है.ये फल खाने में तो स्वादिष्ट तो होता ही है. साथ ही ये फल औषधीय गुणों से भी भरपूर है. इस फल में एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है. जो कई बीमारियों में रामबाण साबित होता है. वहीं, मानसिक बीमारी, अस्थमा, डायरिया, जुकाम, दस्त, आंख की बीमारी, मूत्र और त्वचा रोगों के साथ ही कैंसर जैसे असाध्य रोगों के इलाज में भी काफल उपयोग में लाया जाता है.