देहरादून: एक सैनिक इस दुनिया में नहीं है, फिर भी उसको प्रमोशन मिलता है. छुट्टी भी मिलती है और सुबह साढ़े चार बजे चाय, नौ बजे नाश्ता और शाम में खाना भी दिया जाता है. आप सोचेंगे कि आखिर वह सैनिक कौन है और उसने ऐसा क्या किया है, जो उनके शहीद होने के बाद भी इतना सम्मान दिया जा रहा है. तो जान लीजिए, उस सैनिक का नाम है जसवंत सिंह रावत.
जसवंत सिंह रावत उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के रहने वाले थे. उनका जन्म 19 अगस्त, 1941 को ग्राम बाडयू पट्टी खाटली, पौड़ी (गढ़वाल) में हुआ. वो 16 अगस्त, 1960 को चौथी गढ़वाल रायफल लैन्सडाउन में भर्ती हुए. उनकी ट्रेनिंग के समय ही चीन ने भारत की उत्तरी सीमा पर घुसपैठ कर दी. धीरे-धीरे उत्तरी-पूर्वी सीमा पर युद्ध शुरू कर दिया. सेना को कूच करने के आदेश दिए गए थे. चौथी गढ़वाल रायफल नेफा क्षेत्र में चीनी आक्रमण का जवाब देने के लिए भेजी गई.
गढ़वाल राइफल्स के जानकार बताते हैं कि 17 नवम्बर 1962 को जब चौथी गढ़वाल राइफल को नेफा यानि अरुणाचल प्रदेश भेजा गया, तब जसवंत सिंह रावत की ट्रेनिंग खत्म ही हुई थी. उनकी पलटन को त्वांग वू नदी पर नूरनांग पुल की सुरक्षा हेतु लगाया गया था. जहां चीनी सेना ने हमला बोला था और यह स्थान 14,000 फीट की ऊंचाई पर था और चीनी सैनिकों की संख्या ज्यादा थी.
उनके पास साजो-सामान भी बेहतर थे. इस वजह से हमारे सैनिक हताहत हो रहे थे. दुश्मन के पास एक मीडियम मशीनगन थी, जिसे कि वे पुल के निकट लाने में सफल हो गये. इस एलएमजी से पुल एवं प्लाटून दोनों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई.
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ये देखकर जसवंत सिंह रावत ने मशीनगन लूटने की योजना बाई. उनके साथ लांसनायक त्रिलोक सिंह और रायफलमैन गोपाल सिंह भी थे. ये तीनों जमीन पर रेंगकर मशीनगन से 10-15 गज की दूरी पर पहुंच गए. उन्होंने हैंडग्रेनेड के जरिए चीनी सैनिकों पर हमला कर दिया और उनकी एलएमजी से उन्हीं पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी.
मैदान छोड़ने के बाद चीनियों ने उनकी चौकी पर दोबारा हमला किया. 72 घंटों तक लगभग अकेले मुकाबला करते हुए जसवंत सिंह रावत शहीद हो गए. कहा जाता है जब उनको लगा कि चीनी उन्हें बंदी बना लेंगे तो उन्होंने अंतिम बची गोली से अपने आप को निशाना बना लिया.
चीनी कमांडर भी हो गया मुरीद: 1962 के इस भयंकर युद्ध में 162 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए और 1264 को युद्ध बंदी बना लिया गया था. इसी दौरान मठ के एक मुखबिर ने चीनियों को सूचना दी कि भारतीय सेना के एक ही सिपाही ने चीनी सेना के 300 सिपाहियों को मार दिया और पूरी ब्रिगेड को 72 घंटे से रोके रखा है. इस समाचार के बाद चीनी सेना ने चौकी को चारों ओर से घेर लिया और दोनों तरफ की बीच हुई फायरिंग में जसवंत सिंह रावत शहीद हो गए. हालांकि जसवंत सिंह रावत की वीरता का चीनी सेना का कमांडर खुद मुरीद हो गया. जसवंत सिंह के पराक्रम से चीनी कमांडर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारतीय सेना के इस जवान की तारीफ करते हुए पीतल की बनी प्रतिमा भी भेंट की.
देवता की तरह पूजे जाते हैं: नेफा की जनता जसवंत सिंह रावत को देवता के रूप में पूजती है. उन्हें 'मेजर साहब' कहती है. उनके सम्मान में जसवंतगढ़ भी बनाया गया है. कहा जाता है कि उनकी आत्मा आज भी देश के लिए सक्रिय है. सीमा चौकी के पहरेदारों में से यदि कोई ड्यूटी पर सोता है तो वह उसे चांटा मारकर चौकन्ना कर देती है. स्थानीय लोगों का मानना है कि जसवंत सिंह रावत की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है. हीरो ऑफ नेफा जसवंत सिंह रावत को मरणोपरान्त 'महावीर चक्र' प्रदान किया गया. सेना द्वारा उनकी याद में हर वर्ष 17 नवंबर को 'नूरानांग दिवस' मनाकर अमर शहीद को याद किया जाता है.
रोज कपड़े प्रेस होते हैं और जूतों में पॉलिश: इस स्मारक में शहीद जसवंत के हर सामान को संभालकर रखा गया है. उनके जूतों पर यहां रोजाना पॉलिश की जाती है. पहनने-बिछाने के कपड़े प्रेस किए जाते हैं. इस काम के लिए सिख रेजीमेंट के पांच जवान तैनात किए गए हैं. यही नहीं, रोज सुबह और रात की पहली थाली उनकी प्रतिमा के सामने परोसी जाती है. बताया जाता है कि सुबह-सुबह जब चादर और अन्य कपड़ों को देखा जाए तो उनमें सिलवटें नजर आती हैं. वहीं, पॉलिश के बावजूद जूते बदरंग हो जाते हैं.
इस रास्ते से गुजरने वाला चाहे जनरल हों या जवान, उन्हें श्रद्धांजलि दिए बिना आगे नहीं बढ़ता. जसवंत सिंह के मारे जाने के बाद भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता. उनके परिवार वाले जब जरूरत होती है, उनकी तरफ से छुट्टी की अर्जी देते हैं. जब छुट्टी मंजूर हो जाती है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गांव ले जाते हैं और जब उनकी छुट्टी समाप्त हो जाती है तो उस चित्र को ससम्मान वापस उसके असली स्थान पर ले जाया जाता है.