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60 फीसदी से कम घनत्व वाले वनों को वन न मानने पर HC सख्त, राज्य सरकार से मांगा पूरा रिकॉर्ड

उत्तराखंड में 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल में फैले या 60 फीसदी से कम घनत्व वाले वनों को वन न मानने के मामले में हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है. हाईकोर्ट ने वन अधिनियम में संशोधन समेत अन्य मामलों में राज्य सरकार से पूरा रिकॉर्ड मांगा है. इसके लिए हाईकोर्ट ने सरकार को 12 मई तक की मोहलत दी है. कोर्ट का साफ कहना है कि प्रदेश को वन विरासत में मिले हैं और सुप्रीम कोर्ट में भी वनों को परिभाषित किया है. जिसके आधार पर हाईकोर्ट ने सरकार से सवाल भी पूछा है.

Tree Protection Act in Uttarakhand
नैनीताल हाईकोर्ट
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Published : May 10, 2023, 6:39 PM IST

नैनीतालः उत्तराखंड सरकार की ओर से वन अधिनियम में संशोधन कर 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 फीसदी से कम घनत्व वाले वनों को वन नहीं मानने के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओं पर हाईकोर्ट में सुनवाई हुई. मामले में मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने राज्य सरकार से 12 मई को इससे संबंधित पूरा रिकॉर्ड कोर्ट में पेश करने को कहा है. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार से पूछा कि जब वनों को सुप्रीम कोर्ट ने परिभाषित किया है तो राज्य सरकार को इसे दोबारा से परिभाषित करने की जरूरत क्यों पड़ी?

गौर हो कि नैनीताल के पर्यावरणविद प्रोफेसर अजय रावत समेत अन्य लोगों ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की. जिसमें उनका कहना है कि 21 नवंबर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी किया था. जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड में जहां पहले 10 हेक्टेयर फिर संशोधन के बाद 5 हेक्टेयर से कम या 60 फीसदी से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र हैं, उनको वनों की श्रेणी से बाहर रखा गया है या उनको वन नहीं माना है.
ये भी पढ़ेंः उत्तराखंड में वृक्ष संरक्षण एक्ट में संशोधन, क्या होंगे फायदे और नुकसान, पढ़िए पूरी खबर

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह आदेश एक ऑफिशियल आदेश है. इसे लागू नहीं किया जा सकता है. क्योंकि, न ही यह शासनादेश है न ही यह कैबिनेट से पारित आदेश है. सरकार ने इसे अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए घुमा फिरा कर यह जीओ जारी किया है. याचिकाकर्ताओं का ये भी कहना है कि फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट 1980 के अनुसार उत्तराखंड में 71 फीसदी वन क्षेत्र घोषित है. जिसमें वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है, लेकिन इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं. जिनको किसी भी श्रेणी में नहीं रखा गया.

याचिकाकर्ताओं का ये भी कहना है कि इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी शामिल किया जाए और जिससे इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके. सुप्रीम कोर्ट ने साल 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो, उनको वनों की क्षेत्र के श्रेणी में रखा जाएगा. वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नहीं है. दुनियाभर में भी जहां 0.5 फीसदी क्षेत्र में पेड़ पौधे हैं या उनका घनत्व 10 फीसदी है तो उनको भी वनों की श्रेणी में रखा गया है. सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार ने कहा था कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदलें. उत्तराखंड में 71 फीसदी वन होने कारण कई नदियों और सभ्यताओं का अस्तित्व बचा हुआ है.

नैनीतालः उत्तराखंड सरकार की ओर से वन अधिनियम में संशोधन कर 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्र में फैले या 60 फीसदी से कम घनत्व वाले वनों को वन नहीं मानने के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओं पर हाईकोर्ट में सुनवाई हुई. मामले में मुख्य न्यायाधीश विपिन सांघी और न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने राज्य सरकार से 12 मई को इससे संबंधित पूरा रिकॉर्ड कोर्ट में पेश करने को कहा है. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार से पूछा कि जब वनों को सुप्रीम कोर्ट ने परिभाषित किया है तो राज्य सरकार को इसे दोबारा से परिभाषित करने की जरूरत क्यों पड़ी?

गौर हो कि नैनीताल के पर्यावरणविद प्रोफेसर अजय रावत समेत अन्य लोगों ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की. जिसमें उनका कहना है कि 21 नवंबर 2019 को उत्तराखंड के वन एवं पर्यावरण अनुभाग ने एक आदेश जारी किया था. जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड में जहां पहले 10 हेक्टेयर फिर संशोधन के बाद 5 हेक्टेयर से कम या 60 फीसदी से कम घनत्व वाले वन क्षेत्र हैं, उनको वनों की श्रेणी से बाहर रखा गया है या उनको वन नहीं माना है.
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याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह आदेश एक ऑफिशियल आदेश है. इसे लागू नहीं किया जा सकता है. क्योंकि, न ही यह शासनादेश है न ही यह कैबिनेट से पारित आदेश है. सरकार ने इसे अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए घुमा फिरा कर यह जीओ जारी किया है. याचिकाकर्ताओं का ये भी कहना है कि फॉरेस्ट कंजर्वेशन एक्ट 1980 के अनुसार उत्तराखंड में 71 फीसदी वन क्षेत्र घोषित है. जिसमें वनों की श्रेणी को भी विभाजित किया हुआ है, लेकिन इसके अलावा कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं. जिनको किसी भी श्रेणी में नहीं रखा गया.

याचिकाकर्ताओं का ये भी कहना है कि इन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्र की श्रेणी शामिल किया जाए और जिससे इनके दोहन या कटान पर रोक लग सके. सुप्रीम कोर्ट ने साल 1996 के अपने आदेश गोडा वर्मन बनाम केंद्र सरकार में कहा है कि कोई भी वन क्षेत्र चाहे उसका मालिक कोई भी हो, उनको वनों की क्षेत्र के श्रेणी में रखा जाएगा. वनों का अर्थ क्षेत्रफल या घनत्व से नहीं है. दुनियाभर में भी जहां 0.5 फीसदी क्षेत्र में पेड़ पौधे हैं या उनका घनत्व 10 फीसदी है तो उनको भी वनों की श्रेणी में रखा गया है. सरकार के इस आदेश पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भारत सरकार ने कहा था कि प्रदेश सरकार वनों की परिभाषा न बदलें. उत्तराखंड में 71 फीसदी वन होने कारण कई नदियों और सभ्यताओं का अस्तित्व बचा हुआ है.

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