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लोक कला ऐपण का बदला स्वरूप, घरों की त्योहार पर होती है साज सज्जा

उत्तराखंड की लोक कला की स्थानीय शैली को ऐपण कहा जाता है.जानकारों के मुताबिक, ऐपण का अर्थ लीपने से होता है. लीप शब्द का अर्थ उंगलियों से रंग लगाना और पुराने समय से यही चला रहा है. दीपावली के अवसर पर कुमाऊं में घर-घर ऐपण से सज जाते हैं.

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ऐपण कला करतीं बच्चियां
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Published : Nov 13, 2020, 7:02 PM IST

Updated : Nov 13, 2020, 8:32 PM IST

हल्द्वानी : दीपावली आते ही जहां घरों की साज-सज्जा के लिए रंग और पेंट का उतना महत्व नहीं है. जितना पहाड़ की पौराणिक प्राकृतिक रंगों की ऐपण कला का है. मांगलिक कार्यक्रमों के अलावा दीपावली में पौराणिक काल से स्थानीय शैली में ऐपण कला से घरों के दरवाजे की देहरी और खिड़कियों को सजाया जाता रहा है और यह परंपरा आज भी जीवंत है, लेकिन इसका स्वरूप समय के साथ बदल गया है.

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ऐपण कला करतीं बच्चियां
उत्तराखंड की लोक कला की स्थानीय शैली को ऐपण कहा जाता है, और जानकारों के मुताबिक ऐपण का अर्थ लीपने से होता है. लीप शब्द का अर्थ उंगलियों से रंग लगाना और पुराने समय से यही चला रहा है. दीपावली के अवसर पर कुमाऊं में घर-घर ऐपण से सज जाते हैं. दीपावली के दिन घर में लक्ष्मी के प्रवेश के लिए ऐपण कला के माध्यम से ही घर के बाहर से अंदर की ओर उनके पैर भी बनाए जाते हैं, और दोनों पैरों के बीच खाली स्थान पर गोल आकृति बनाई जाती है, जो कि धन का प्रतीक मानी जाती है.
लोक कला ऐपण का बदला स्वरूप.

इसके अलावा मंदिर और पूजा कक्ष में इसी लोक कला से मां लक्ष्मी की चौकी भी सजाई जाती है. पहले गेरू और पिसे हुए चावल के रंग से इसे सजाया जाता था, लेकिन अब समय के साथ इसका स्वरूप बदल गया है. अब बदलते समय के अनुसार गेरू एवं विश्ववार (चावल से बनाए रंग) से बनाए जाने वाले ऐपण के बदले सिंथेटिक रंगों से भी ऐपण बनाए जाने लगे हैं.

ये भी पढ़ें : दिवाली की सजावट के लिए बढ़ी मिट्टी के दियों की मांग, कुम्हार हुए खुश

क्योंकि पुराने समय में घर में लिपाई करने के बाद गैरु के रंग और चावल के विश्ववार से ऐपण कला बनाई जाती थी, लेकिन अब सिंथेटिक कलर की वजह से घरों के सीमेंट की देहरी में यह लंबे समय तक सजी हुई रहती है. यही वजह है कि धीरे-धीरे आधुनिकता के दौर में सिंथेटिक रंगों का प्रचलन बढ़ रहा है. लेकिन अच्छी बात यह है कि उत्तराखंड की लोक कला और लोक संस्कृति को आने वाली पीढ़ी संभाल रही है.

हल्द्वानी : दीपावली आते ही जहां घरों की साज-सज्जा के लिए रंग और पेंट का उतना महत्व नहीं है. जितना पहाड़ की पौराणिक प्राकृतिक रंगों की ऐपण कला का है. मांगलिक कार्यक्रमों के अलावा दीपावली में पौराणिक काल से स्थानीय शैली में ऐपण कला से घरों के दरवाजे की देहरी और खिड़कियों को सजाया जाता रहा है और यह परंपरा आज भी जीवंत है, लेकिन इसका स्वरूप समय के साथ बदल गया है.

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ऐपण कला करतीं बच्चियां
उत्तराखंड की लोक कला की स्थानीय शैली को ऐपण कहा जाता है, और जानकारों के मुताबिक ऐपण का अर्थ लीपने से होता है. लीप शब्द का अर्थ उंगलियों से रंग लगाना और पुराने समय से यही चला रहा है. दीपावली के अवसर पर कुमाऊं में घर-घर ऐपण से सज जाते हैं. दीपावली के दिन घर में लक्ष्मी के प्रवेश के लिए ऐपण कला के माध्यम से ही घर के बाहर से अंदर की ओर उनके पैर भी बनाए जाते हैं, और दोनों पैरों के बीच खाली स्थान पर गोल आकृति बनाई जाती है, जो कि धन का प्रतीक मानी जाती है.
लोक कला ऐपण का बदला स्वरूप.

इसके अलावा मंदिर और पूजा कक्ष में इसी लोक कला से मां लक्ष्मी की चौकी भी सजाई जाती है. पहले गेरू और पिसे हुए चावल के रंग से इसे सजाया जाता था, लेकिन अब समय के साथ इसका स्वरूप बदल गया है. अब बदलते समय के अनुसार गेरू एवं विश्ववार (चावल से बनाए रंग) से बनाए जाने वाले ऐपण के बदले सिंथेटिक रंगों से भी ऐपण बनाए जाने लगे हैं.

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क्योंकि पुराने समय में घर में लिपाई करने के बाद गैरु के रंग और चावल के विश्ववार से ऐपण कला बनाई जाती थी, लेकिन अब सिंथेटिक कलर की वजह से घरों के सीमेंट की देहरी में यह लंबे समय तक सजी हुई रहती है. यही वजह है कि धीरे-धीरे आधुनिकता के दौर में सिंथेटिक रंगों का प्रचलन बढ़ रहा है. लेकिन अच्छी बात यह है कि उत्तराखंड की लोक कला और लोक संस्कृति को आने वाली पीढ़ी संभाल रही है.

Last Updated : Nov 13, 2020, 8:32 PM IST
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