कालाढूंगी: केंद्र और उत्तराखंड सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के दावे कर रही हैं. लेकिन कालाढूंगी में ऐतिहासिक धरोहरों को नजर अंदाज किया जा रहा है. कॉर्बेट नगरी कालाढूंगी की ये धरोहर ध्वस्त होने की दहलीज तक पहुंच गई है.
ब्रिटिशकाल के दौरान 1858 में डेविड कंपनी ने नैनीताल के कालाढूंगी, कोटाबाग, खुरपाताल और मुक्तेश्वर के एक-एक स्थान को रुड़की नाम दिया. चारों जगह पर आयरन फाउंड्री की स्थापना की. इन भट्टियों में पहाड़ों में पाया जाने वाला काला पत्थर निकालकर गलाया जाता था और उससे कच्चे लोहे का निर्माण किया जाता था. इस लोहे से रेल लाइन और पुलों का निर्माण किया जाता था. कालाढूंगी से सटे पहाड़ों में भी काला पत्थर सबसे ज्यादा पाए जाने पर 1858 में कालाढूंगी में भी उत्तर भारत की सबसे बड़ी आयरन फाउंड्री की स्थापना की.
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यहां लोहे की यह फैक्ट्री स्थापित करने का मकसद कुमाऊं का विकास था. फैक्ट्री स्थापित होने पर कालाढूंगी के करीब 250 परिवारों को रोजगार भी मिला. पर्यटन से जुड़ी कई मशहूर पुस्तकों में कालाढूंगी में उत्तर भारत की इस प्रथम और सबसे बड़ी आयरन फाउंड्री का जिक्र होने की वजह से देश ही नहीं विदेशों से आने वाले पर्यटक इसे देखने की इच्छा जाहिर करते हैं. यह आयरन फाउंड्री कालाढूंगी के वार्ड नम्बर-2 रुड़की बहादुर में स्थित है. लेकिन यहां तक जाने का रास्ता न होने से ज्यादातर पर्यटक यहां पहुंच नहीं पाते. देखरेख के अभाव में यह इतिहास मद्धिम होने की कगार पर पहुंच गया है.