देहरादून: उत्तराखंड सरकार पीएम मोदी के सपनों को पलीता लगाने का काम कर रही है. पीएम मोदी ने देशभर के किसानों के लिए जो सपना देखा वो उत्तराखंड में टूटता नजर आ रहा है. दरअसल, उत्तराखंड में किसानों की आय दोगुनी करने के लिए राज्य में चकबंदी जरूरी है. जिसपर अधिनियम बनने के बाद भी काम नहीं हो पा रहा है.
उत्तराखंड में पहाड़ों के सीढ़ीनुमा खेत फसलों के लिए अभिशाप बने हुए हैं. शायद यही वजह है कि सूबे में खेती के लिए चकबंदी को जरूरी माना गया है. इसी फार्मूले पर पिछली सरकार ने कदम आगे बढ़ाया और चकबंदी विधेयक को विधानसभा में पास कर कानून भी बना दिया, लेकिन साल 2016 में चकबंदी अधिनियम बनने के बाद इस पर अमल नहीं किया गया.
चकबंदी पर उत्तराखंड में कब क्या हुआ ?
- तिवारी सरकार में भूमि सुधार परिषद का गठन किया गया लेकिन यह परिषद अपना कार्यकाल पूरा करने तक चकबंदी पर कोई ड्राफ्ट तैयार नहीं कर सकी.
- जनवरी 2015 में हरीश सरकार ने चकबंदी सलाहकार समिति गठित की गई.
- यमुनोत्री विधायक केदार सिंह रावत की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने तेजी से काम करते हुए, सितंबर 2015 में 8 महीनों में ही चकबंदी को लेकर ड्राफ्ट तैयार कर लिया.
- मार्च 2016 में चकबंदी को लेकर हरीश सरकार ने विधेयक कैबिनेट में पास कर दिया गया.
- चकबंदी पर ड्राफ्ट तैयार होने के बाद विधेयक विधानसभा में आने से पहले ही हरीश सरकार गिर गई.
- कोर्ट से राहत मिलने के बाद जुलाई 2016 में हरीश सरकार ने विधानसभा में चकबंदी विधायक पास किया और इसने कानून की शक्ल ले ली.
- साल 2017 में विधानसभा चुनाव में त्रिवेंद्र सरकार प्रदेश में आई और उसने एक बार फिर चकबंदी को लेकर समिति के अध्यक्ष के रूप में केदार सिंह को जिम्मेदारी देते हुए इसका नोटिफिकेशन किया.
- केदार सिंह रावत ने समिति में यह कह कर काम करने से इनकार कर दिया कि अब कानून बन चुका है और समिति का इसमें कोई रोल नहीं है.
- अधिनियम बनने के बाद करीब 300 पदों के लिए अधियाचन चयन सेवा आयोग को भेजा गया जिस पर अब तक कोई भर्ती नहीं हो पाई है.
चकबंदी को लेकर कानून बनने के बाद भी अब तक न तो इसके लिए अलग विभाग का कोई खाका तैयार किया गया है और न ही पदों में भर्ती को लेकर कोई काम हुआ है. साफ है कि चकबंदी पर त्रिवेंद्र सरकार एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाई है. इसका सीधा कारण चकबंदी में स्थानीय लोगों की नाराजगी का डर है. जिसके कारण सरकार इस कानून को मूर्त रूप नहीं दे पा रही है.
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उधर, केंद्र सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की बात कर रही है. जबकि, चकबंदी के बिना यह संभव नहीं दिखाई दे रहा है. राज्य सरकार स्वैच्छिक चकबंदी की बात कर रही है लेकिन इसके लिए भी लोगों को जागरूक करने का काम ठप पड़ा है. साल 2016 में ही चकबंदी सलाहकार समिति को ही करीब 57 से 58 गांव ने स्वैच्छिक चकबंदी की इच्छा प्रस्ताव के जरिए जाहिर की थी. बावजूद इसके आज तक एक भी गांव को चकबंदी के तहत कानूनी रूप नहीं दिया गया है. हैरानी की बात यह है कि उत्तराखंड के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल पहाड़ों चकबंदी में बड़ी समस्या बता रहे हैं.
सवाल यह है कि स्वैच्छिक चकबंदी की इच्छा जाहिर करने वाले गांव को अब तक क्यों चकबंदी में कानूनी रूप नहीं दिया गया है. क्या चंद लोगों पर जिम्मेदारी छोड़कर सरकार अपना पल्ला झाड़ सकती है. सवाल ये भी है कि बिना चकबंदी के सरकार कैसे किसानों की आय दोगना करने का दावा कर रही है.