देहरादून: उत्तराखंड में धामी सरकार मेडिकल कैनबिस को लेकर कोई फैसला नहीं ले पा रही है. इस मामले में लंबे समय से नीति बनाने का दावा तो किया जा रहा है, लेकिन सरकार किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंच पा रही है. लिहाजा मुमकिन है कि कैनबिस को लेकर राजनीतिक नुकसान सरकार की घबराहट की वजह हो सकता है. जबकि मेडिकल कैनबिस पर सरकार का एक कदम राज्य में एक बड़े निवेश और रोजगार की राह खोल सकता है. उधर जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्य इस दिशा में कदम आगे बढ़ा चुके हैं.
उत्तराखंड में मेडिकल कैनबिस की अपार संभावना: उत्तराखंड मौजूदा दौर में बड़े निवेशकों की तलाश कर रहा है. राज्य में कई सेक्टर में निवेशकों को लुभाने की भी कोशिश हो रही है. इसके लिए धामी सरकार भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी रोड शो कर निवेशकों को बुला रही है. इस सबके बीच उत्तराखंड में सरकार, राज्य की उस ताकत को नजरअंदाज कर रही है जिसकी बदौलत प्रदेश में भारी निवेश और रोजगार की भी संभावनाएं बढ़ सकती हैं. प्रदेश के लिए वह सेक्टर मेडिकल कैनबिस का है. सबसे पहले जानिए कि आखिरकार मेडिकल कैनाबिस है क्या?
मेडिकल कैनबिस क्या है? मेडिकल कैनबिस जिसे मेडिकल मारिजुआना के नाम से भी जाना जाता है, सामान्य भाषा में कहें तो भांग या हैम्प का मेडिसिन के रूप में उपयोग है. हालांकि दुनियाभर के कई देशों में इसकी अनुमति नहीं है और ये पूरी तरह से प्रतिबंधित है. लेकिन इसकी उपयोगिता के चलते कई देशों में इसकी दवाइयों के लिए उपयोग को अनुमति दी गयी है.
कैनबिस पर सबसे आगे होकर भी पिछड़ा उत्तराखंड: भांग का औद्योगिक रूप से उपयोग करने को लेकर फैसला लेने वाला उत्तराखंड पहला राज्य था. लेकिन इसकी उपयोगिता और राज्य के लिए इसके महत्व को समझने के बावजूद भी आज उत्तराखंड इस मामले में अपने पड़ोसी राज्यों से पिछड़ गया है. इस मामले में जम्मू कश्मीर में तो रिसर्च का काम भी शुरू हो चुका है. जम्मू कश्मीर इस क्षेत्र में काम करने के लिए भारत सरकार की महत्वपूर्ण रिसर्च एजेंसियों के साथ काम शुरू कर चुका है. इसी तरह हिमाचल प्रदेश में भी मेडिकल कैनबिस के लिए कमेटी लोगों से सुझाव लेने में जुट गई है. जल्द ही इसे फाइनल ड्राफ्ट के रूप में तैयार किया जाने वाला है.
साल 2018 में इस पर उत्तराखंड ने लिया पहली बार फैसला: उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार के दौरान हैम्प के नाम से इस क्षेत्र में आगे बढ़ने का फैसला लिया गया था. हालांकि उसे दौरान इसके औद्योगिक उपयोग पर विचार किया गया था. साल 2018 में पूरे देश में पहली बार इसके लिए किसी राज्य ने कदम बढ़ाया था और नीति भी तैयार की गई थी. लेकिन राजनीतिक रूप से विपक्षी दलों ने इसे नशे से जोड़ते हुए सरकार की घेराबंदी भी की थी. इससे त्रिवेंद्र सरकार को कुप्रचार के कारण राजनीतिक रूप से भी नुकसान होने की बात कही गयी थी. इसके बाद यह पूरा प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला गया और नीति में संशोधन के नाम पर इसको लेकर बैठकों से आगे कुछ नहीं हो सका. हालांकि अभी त्रिवेंद्र सिंह रावत कहते हैं कि इस सेक्टर में राज्य सरकार को काम करना चाहिए. पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत कहते हैं कि मेडिकल कैनबिस के क्षेत्र में प्रदेश में बेहद संभावनाएं हैं. इससे राज्य के रेवेन्यू में बढ़ोत्तरी के साथ ही प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों की आर्थिक स्थिति भी सुधर सकती है. इस दौरान त्रिवेंद्र सिंह रावत यह भी स्पष्ट करते हैं कि यदि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी इस मामले में उनसे सलाह लेते हैं तो वह इसको आगे बढ़ाने की सलाह जरूर देंगे.
राजनीतिक रूप से कुप्रचार का भी सरकार को डर: उत्तराखंड में नशा हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है. चाहे बात बढ़ते शराब के प्रचलन की हो या फिर किसी दूसरे तरह के नशे की. इन मामलों को लेकर हमेशा ही राजनीति चरम पर रही है. खासतौर पर पर्वतीय क्षेत्रों में तो कई बार राजनीतिक दलों को इसका भारी नुकसान भी झेलना पड़ता है. पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाओं के बड़े स्तर पर शराब के खिलाफ आंदोलन इसके सबसे बड़े गवाह रहे हैं. शायद इन्हीं स्थितियों को देखते हुए सरकारें भी भांग का नाम आते ही इस मामले में बैक फुट पर नजर आती हैं. बड़ी बात यह है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी जब इस सेक्टर पर काम किया तो सरकार से जुड़े लोगों ने इसे हैम्प के नाम से ही प्रचारित प्रसारित किया. भांग का नाम लेने से परहेज किया जाता रहा. शायद इसी तरह का डर अब धामी सरकार को भी है और इसीलिए इस नीति पर लंबे समय से कम होने की बात तो कही जा रही है, लेकिन सरकार इस पर किसी अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंच पाई है.
मेडिकल कैनबिज का दुनिया भर में बड़ा बाजार: कैनबिस का दुनिया भर में एक बड़ा बाजार है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी काफी डिमांड है. माना जाता है कि इस वक्त मेडिकल कैनबिस दुनियाभर में 7 बिलियन डॉलर की इंडस्ट्री है. जबकि भारत में इसका बाजार 50 करोड़ तक का ही पहुंच पाया है. राज्यों के स्तर पर देखें तो हिमाचल प्रदेश में इस इंडस्ट्री से शुरुआती दौर में ही सालाना 500 करोड़ के सरकार को रिवेन्यू मिलने की संभावना व्यक्त की जा रही है. जबकि विशेषज्ञ कहते हैं कि त्रिवेंद्र सरकार के दौरान इस क्षेत्र में इन्वेस्टर समिट के समय करीब 1200 करोड़ के निवेश पर चर्चा हुई थी. अब विशेषज्ञ उत्तराखंड में बेहतर नीति आने की स्थिति में मेडिकल कैनबिस को लेकर राज्य में करीब 2000 से 2500 करोड़ का निवेश आने का दावा करते हैं.
रोजगार के लिहाज से भी टर्निंग प्वाइंट बन सकती है यह इंडस्ट्री: बताया जाता है कि मेडिकल कैनबिस के एक प्लांट में करीब 250 लोगों को रोजगार मिल सकता है. यानी यदि प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में इसके लिए काम किया जाए, तो हजारों लोगों को इसके जरिए रोजगार भी मिल सकता है. दुनिया के करीब 40 से 50 देशों में मेडिकल रूप से इसके उपयोग की अनुमति दी गई है. अब तक उत्तराखंड में इस सेक्टर में निवेश की इच्छा रखने वाले निवेशक अब हिमाचल की तरफ रुख भी करने लगे हैं.
हैंप का उपयोग मेडिकल से लेकर उद्योग क्षेत्र के लिए भी अहम: हैंप का उपयोग मेडिकल सेक्टर में करने की स्थिति में ही सैकड़ों करोड़ के राजस्व की प्राप्ति राज्य सरकार कर सकती है. जबकि हैंप का उपयोग मेडिकल क्षेत्र के साथ उद्योगों में भी किया जा सकता है. इसके डंठल, बीज और पत्तियों का उपयोग दवाइयों के साथ ही कपड़ा, फर्नीचर और जैव ईंधन के साथ सौंदर्य प्रसाधन बनाने के लिए भी किया जा सकता है. इस तरह देखा जाए तो इसके बहु उपयोगी होने के चलते इस पर आधारित उद्योगों के जरिए सैकड़ों करोड़ का लाभ राज उठा सकता है.
मेडिकल कैनबिस का खासतौर पर इन बीमारियों के लिए उपयोग: कैनबिस में CBD- कैनबिनोइड और THC- ट्रेटाहाइड्रोकैनबिनोल तत्व होता है. कैनबिनोइड का उपयोग पेन रिलीफ के लिए किया जाता है. ट्रेटाहाइड्रोकैनबिनोल उत्तेजना और नशे को जन्म देता है. मेडिकल कैनबिस में 0.3 या उससे कम THC वाले भांग के बीज प्रयोगशालाओं में तैयार किये जाते हैं. फिर इसके पौधे का मेडिसिन में उपयोग होता है. इसका मुख्य रूप से प्रयोग दर्द निवारक दवा, मिर्गी, न्यूरोपैथी, न्यूरो से जुड़ी बीमारियों, कैंसर के लिए किया जाता है.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ? मेडिकल कैनाबिस को लेकर फिलहाल CSIR (Council of Scientific & Industrial Research), ICMR (Indian Council of Medical Research) और DBT (Dialectical behavior therapy) जैसे बड़े संस्थान रिसर्च कर रहे हैं. इस क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञ अजय खंडूड़ी दावा करते हैं कि उत्तराखंड में इससे निवेश को लेकर तस्वीर बदल सकती है. उनका कहना है कि सरकार ने जिस तरह से लेट लतीफी दिखाई है, उसके बाद निवेशक हिमाचल प्रदेश की तरफ रुख कर रहे हैं.
हालांकि मेडिकल कैनबिस में प्रयोग होने वाला बीज बेहद कम नशे की मात्रा वाला होगा. इसके बीज लैब में ही तैयार किए जाएंगे और इसके बाद बड़ी मात्रा में इसके उत्पादन के लिए ऐसे स्थलों का चयन किया जाएगा, जहां पर सरकार के माध्यम से पूरी मॉनिटरिंग की जा सके. मेडिकल कैनबिस की आड़ में अवैध रूप से नशे का कारोबार ना हो, इसके लिए भी नीति में विशेष रूप से प्रावधान किया जाएगा. उत्तराखंड के लिए यह इसलिए भी मुफीद है, क्योंकि इसे पर्वतीय क्षेत्रों में भी कम सिंचित वाली भूमि पर उगाया जा सकता है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि पर्वतीय क्षेत्रों में लगातार लोग खेती से विमुख हो रहे हैं और करीब 80% क्षेत्र में लोगों ने खेती छोड़ दी है. ऐसे में यदि उन्हें सरकार के साथ काम करने का मौका मिलता है और इससे उनकी आर्थिकी बढ़ती है तो फिर सेवा शर्तों के आधार पर निगरानी के साथ पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है. खास बात यह है कि पर्वतीय क्षेत्र इसके लिए सबसे माकूल माहौल वाले माने जाते हैं. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह पर्वतीय क्षेत्रों में इसके अनुकूल तापमान भी है.
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कांग्रेस क्या कहती है? इस मामले में फिलहाल विपक्षी दल भी सरकार से ऐसे हिमालयी उत्पादों को आगे बढ़ाने की दरख्वास्त कर रहा है, जिससे राज्य की आर्थिकी बेहतर हो सकती है. कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता शीशपाल बिष्ट कहते हैं कि राज्य सरकार निवेश के नाम पर देश-विदेश में रोड शो कर रही है, जबकि सरकार को अपने पर्वतीय उत्पादों को प्राथमिकता देनी चाहिए. सरकार की तरफ से ना तो इन उत्पादों पर कोई रिसर्च करवाया जा रहा है और ना ही इस पर कोई ध्यान है. जबकि सरकार को ऐसे मेडिकल उत्पादों पर कारगर नीति बनानी चाहिए.
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