देहरादून: उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में पाया जाने वाला 'काफल' पहाड़ के लिए सिर्फ एक फल नहीं है, बल्कि इसमें उत्तराखंड के साहित्य और संस्कृति की भी झलक मिलती है. पहाड़ियों की लोकभावनाओं और औषधिय गुणों को समेटे 'काफल' आज भी उत्तराखंड की पहचान बना हुआ है, मगर बदलते पर्यावरण और बीतते वक्त के साथ धीरे-धीरे काफल कहीं गुम सा होता जा रहा है. दरअसल, मौसम की मार ने इस बार काफल की मिठास को फीका कर दिया है, जिसके कारण पहाड़वासियों के चेहरे पर भी मायूसी है.
औषधिय गुणों से भरपूर है काफल
गर्मियों के मौसम में पहाड़ों पर लोकफल काफल को देखना बेहद सुखद होता है. इन लाल रसीले काफलों से न जाने कितने ही पहाड़ियों की यादें जुड़ी हुई हैं. गर्मी के मौसम में ये फल थकान दूर करने के साथ ही लोगों को सीधे उनकी खट्टी मिठ्ठी यादों में ले जाता है. औषधीय गुणों से भरपूर काफल से स्ट्रोक और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है. एंटी-ऑक्सीडेंट तत्व होने के कारण इसे खाने से पेट संबंधित रोगों से भी निजात मिलती है.
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हरीश रावत की 'काफल' पार्टी ने बटोरी सुर्खियां
कई गुणों से युक्त काफल की इसी खासियत और लोगों से जुड़ाव का नतीजा है कि उत्तराखंड की राजनीति में भी अक्सर काफल का नाम सुना जाता रहा है. बीते साल पूर्व सीएम हरीश रावत की काफल पार्टी ने राजनीतिक गलियों में खूब चर्चाएं बटोरी थी. हरीश रावत ने भी काफल की महता को समझते हुए इसका जमकर इस्तेमाल किया. दरअसल, इसका कारण काफल को और बड़े स्तर पर प्रचारित करने के साथ ही काफल को लेकर लोगों के अपनत्व का राजनीतिक फायदा लेना भी था. बहरहाल, पहाड़ों में काफल का केवल राजनीति से ही लेना देना नहीं है, यहां मेहमानों को भी काफाल परोसने की भी परंपरा है.
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आर्थिकी का जरिया भी है 'काफल'
राज्य से पलायन कर चुके लोगों को तो ये फल बेहद लुभाता है. यही नहीं गर्मियों की छुट्टी में स्कूली बच्चे इस फल को जंगलों से लाकर बाजारों में बेचते हैं. जिससे ये फल पारिवारिक आमदनी का भी जरिया बनता है. मगर इस बारिश, ओले और मौसम की मार के चलते ये फल बर्बाद हो गया है.
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हिमालयी क्षेत्रों में मिलने वाला सदाबहार वृक्ष है 'काफल'
काफल का पेड़ जंगलों में खुद ही उगता है. पहाड़ों पर सैकड़ों जंगलों में इसकी मौजूदगी हैं. मध्य हिमालयी क्षेत्र में मिलने वाला ये सदाबहार वृक्ष 1500 से 2500 मीटर तक की उंचाई वाले इलाकों में मिलता है. काफल एक औषधिय गुणों वाला वृक्ष भी है. यूनानी चिकित्सा में इस वृक्ष की छाल का उपयोग होता है. जबकि काफल के फल में प्रोटीन, विटामिन, कैल्शियम, मैग्निशियम, फास्फोरस, पोटेशियम और आयरन जैसे तत्व भी पाये जाते हैं.
माना जाता है कि सामान्य तौर पर काफल के एक पेड़ से 15 किलो काफल निकलते हैं. हालांकि, बाजारों में अभी इस फल की कीमत काफी कम है, मगर पहाड़ियों के लिए ये फल काफी कीमती है.
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साहित्य में भी काफल की मौजूदगी
बात अगर उत्तराखंड के साहित्य की करें तो ये भी काफल से अछूता नहीं रहा. यहां भी काफल का नाम काफी सुनाई देता है. पूर्व में कई रचनाएं काफल को देखकर रची गई हैं. हालांकि अब इसकी मौजूदा स्थिति और उत्पादन में कमी से इस बार लोग निराश हैं. इतिहासकार योगम्बर सिंह बड़थ्वाल बताते हैं कि काफल अपने लाजवाब स्वाद के कारण लोगों के जहन में बसा है.
सही मायनों में अगर कहा जाये तो काफल पहाड़ के फलों में एक अलग स्थान रखता है. मगर बीतते वक्त के साथ धीरे-धीरे ये फल पहाड़ों में कम होता जा रहा है. राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से महत्व रखने वाले इस फल का उपयोग होने के बावजूद सरकारों की ओर से अभी तक इसे लेकर कोई पहल नहीं की गई, जोकि काफी निराशाजनक है. पहाड़ों में तीन महीने रोजगार देने वाले इस फल को रोजगार से जोड़ने के प्रयास किये जाने चाहिए, ताकि इसकी मिठास लोगों की जुबां से जीवन में भी पहुंचे. साथ ही इसके पेड़ों के संरक्षण और संवद्धर्न से लिए भी सरकारों को कोई नीतिगत निर्णय लेने की जरुरत है. जिससे काफल के पुराने अस्तित्व को फिर से जीवंत किया जा सके.