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100 साल पहले पुतली को ब्याह कर लाए थे गांव के तांत्रिक, आज भी जश्न मनाता है पूरा गांव

एक ऐसी ही परंपरा 100 साल बाद भी सागर के डूंगासरा गांव में आज भी जीवित है. जहां लोग दूसरे गांव से जीत कर लाई हुई पुतली की पारंपरिक पूजा करते हैं और इसके साथ ही हर साल भरता है 'पुतली का मेला.'

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Published : Nov 12, 2019, 8:11 AM IST

सागर

सागर (मध्य प्रदेश): बुंदेलखंड पंचशील अपने रास रंग और अनोखी परंपरा और मेलों के लिए विश्व प्रसिद्ध है. यहां की अनोखी परंपराएं पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं. एक ऐसी ही परंपरा 100 साल बाद भी सागर के डूंगासरा गांव में आज भी जीवित है. जहां लोग दूसरे गांव से जीत कर लाई हुई पुतली की पारंपरिक पूजा करते हैं और इसके साथ ही हर साल भरता है 'पुतली का मेला.'

सागर में पुतली मेले की अनोखी परंपरा

सागर से करीब 30 किलोमीटर दूर सानोधा थाना क्षेत्र के ग्राम डूंगासरा में हर साल पुतली का मेला आयोजित किया जाता है. जहां परंपरागत बाजार सजता है. दूरदराज के लोग इस मेले का लुत्फ उठाने आते हैं. जहां मेले में सांस्कृतिक उत्सव के रूप में ग्वाल नृत्य, मोनिया बरेदी नृत्य और राई नृत्य मेले में चार चांद लगा देता है.

मेले की कहानी-

यहां के स्थानीय लोगों के अनुसार करीब 100 साल पहले कुछ ग्रामीण और यहां के तांत्रिक एक दूसरे गांव भैंसवाही गए थे. जहां एक लकड़ी की पुतली रखकर मेला भरता था और उस मेले की शर्त ये थी कि यदि इस पुतली को किसी तांत्रिक ने तंत्र मंत्र से चला दिया और अपने फेरे लगवा दिए तो ये पुतली उसकी हो जाएगी. इस पुतली का उस गांव से ब्याह हो जाएगा और वो मेला उसी गांव में भरा जाने लगेगा. जिसके बाद डूंगासरा गांव के तांत्रिकों ने तंत्र मंत्र से उस पुतली को चला दिया और उसके साथ फेरे लेकर उसे ब्याह कर अपने गांव ले आए और पूरे गांव वालों ने अपने गांव की इस जीत का जश्न मेले के रूप में मनाया.

जिसके बाद से ही पिछले 100 सालों से ये पुतली का मेला इस गांव में लगता आ रहा है. यहां हर साल कई गांव से तांत्रिक आते हैं और इस पुतली को शर्त के अनुसार चलाने की कोशिश करते हैं, लेकिन आज तक फिर इसे कोई अपने साथ नहीं चला सका. तब से ही गांव हर साल उस जीत का जश्न मनाता चला रहा है. इस दिन गांव वाले ढोल-नगाड़े, मंजीरा, बांसुरी बजाकर नाच गाकर मेले का आनंद उठाते हैं.

सागर (मध्य प्रदेश): बुंदेलखंड पंचशील अपने रास रंग और अनोखी परंपरा और मेलों के लिए विश्व प्रसिद्ध है. यहां की अनोखी परंपराएं पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं. एक ऐसी ही परंपरा 100 साल बाद भी सागर के डूंगासरा गांव में आज भी जीवित है. जहां लोग दूसरे गांव से जीत कर लाई हुई पुतली की पारंपरिक पूजा करते हैं और इसके साथ ही हर साल भरता है 'पुतली का मेला.'

सागर में पुतली मेले की अनोखी परंपरा

सागर से करीब 30 किलोमीटर दूर सानोधा थाना क्षेत्र के ग्राम डूंगासरा में हर साल पुतली का मेला आयोजित किया जाता है. जहां परंपरागत बाजार सजता है. दूरदराज के लोग इस मेले का लुत्फ उठाने आते हैं. जहां मेले में सांस्कृतिक उत्सव के रूप में ग्वाल नृत्य, मोनिया बरेदी नृत्य और राई नृत्य मेले में चार चांद लगा देता है.

मेले की कहानी-

यहां के स्थानीय लोगों के अनुसार करीब 100 साल पहले कुछ ग्रामीण और यहां के तांत्रिक एक दूसरे गांव भैंसवाही गए थे. जहां एक लकड़ी की पुतली रखकर मेला भरता था और उस मेले की शर्त ये थी कि यदि इस पुतली को किसी तांत्रिक ने तंत्र मंत्र से चला दिया और अपने फेरे लगवा दिए तो ये पुतली उसकी हो जाएगी. इस पुतली का उस गांव से ब्याह हो जाएगा और वो मेला उसी गांव में भरा जाने लगेगा. जिसके बाद डूंगासरा गांव के तांत्रिकों ने तंत्र मंत्र से उस पुतली को चला दिया और उसके साथ फेरे लेकर उसे ब्याह कर अपने गांव ले आए और पूरे गांव वालों ने अपने गांव की इस जीत का जश्न मेले के रूप में मनाया.

जिसके बाद से ही पिछले 100 सालों से ये पुतली का मेला इस गांव में लगता आ रहा है. यहां हर साल कई गांव से तांत्रिक आते हैं और इस पुतली को शर्त के अनुसार चलाने की कोशिश करते हैं, लेकिन आज तक फिर इसे कोई अपने साथ नहीं चला सका. तब से ही गांव हर साल उस जीत का जश्न मनाता चला रहा है. इस दिन गांव वाले ढोल-नगाड़े, मंजीरा, बांसुरी बजाकर नाच गाकर मेले का आनंद उठाते हैं.

Intro:सागर । बुंदेलखंड पंचशील अपने रास रंग और अनोखी परंपरा और मेलों के लिए विश्व प्रसिद्ध है यहां की अनोखी परंपरा है पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं कुछ ऐसी ही परंपरा है 100 साल बाद आज भी सागर के डूंगासरा गांव में आज भी जीवित है जहां लोग करीब 100 साल पहले दूसरे गांव से जीत कर लाई हुई पुतली की पारंपरिक पूजा करते हैं और यह हर साल भरता है पुतली का मेला


Body:सागर से करीब 30 किलोमीटर दूर सानोधा थाना क्षेत्र के ग्राम डूंगासरा मैं हर साल पुतली का मेला आयोजित किया जाता है जहां परंपरागत बाजार सस्ता है दूरदराज गांव से लोग इस मेले का लुत्फ उठाने आते हैं जहां मेले में सांस्कृतिक उत्सव के रूप में ग्वाल नृत्य मोनिया बरेदी नृत्य और राई नृत्य मेले में चार चांद लगा देता है भीड़ लगाकर लोग यहां इस सांस्कृतिक उत्सव का आनंद लेते हैं

मेले की कहानी

दरअसल यहां के स्थानीय लोगों के अनुसार करीब 100 साल पहले कुछ ग्रामीण और यहां के तांत्रिक एक दूसरे गांव भैंसवाही गए थे जहां एक लकड़ी की पुतली रखकर मेला भरता था और उस मेले की शर्त यह थी कि यदि इस पुतली को किसी तांत्रिक ने तंत्र मंत्र से चला दिया और अपने फेरे लगवा दिए तो यह पुतली उसकी हो जाएगी और इस पुतली का उस गांव से ब्याह हो जाएगा और वह मिला उसी गांव में भरा जाने लगेगा जिसके बाद डूंगासरा गांव के तांत्रिकों ने तंत्र मंत्र से उस पुतली को चला दिया और उसके साथ फेरे लेकर उसे ब्याह कर अपने गांव ले आए और पूरे गांव वालों ने अपने गांव की इस जीत का जश्न मेले के रूप में बनाया जिसके बाद से ही पिछले 100 सालों से यह पुतली का मेला इस ही गांव में लगता आ रहा है यहां हर साल कई गांव से तांत्रिक आते हैं और इस पुतली को शर्त के अनुसार चलाने की कोशिश करते हैं लेकिन आज तक फिर इसे कोई अपने साथ नहीं चला सका ।

और तब से ही गांव हर साल उस जीत का जश्न मनाता चला रहा है इस दिन गांव वाले ढोल नगाड़े मंजीरा बांसुरी बजाकर नाच गाकर मेले का आनंद उठाते हैं



बाइट जगदीश यादव सरपंच

बाइट रघुनाथ यादव ग्रामीण







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