देहरादून: उत्तराखंड कांग्रेस के इतिहास में हरीश रावत का योगदान सबसे अहम दिखाई देता है. राज्य में पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने की बात हो या फिर एक गुट के नेतृत्व के रूप में उनकी भूमिका, सभी जगह हरीश रावत का नाम समय-समय पर सुनाई देता रहा है. इस दौरान हरीश रावत अपनी ही सरकार को असहज करने में भी कई बार नहीं चूके हैं. इस बीच गुटबाजी को शांत करने के लिए हरीश रावत को ही पार्टी हाईकमान की तरफ से पंजाब में जिम्मेदारी देना भाजपाइयों की चुटकी की वजह बनी हुई है.
उत्तराखंड की राजनीति का गुटबाजी का इतिहास: उत्तराखंड में राज्य स्थापना के बाद अंतरिम सरकार में भाजपा नेताओं के बीच गुटबाजी को सबने देखा. इस दौरान इस गुट का नेतृत्व भाजपा के वरिष्ठ नेता भगत सिंह कोश्यारी कर रहे थे. विधायकों की दौड़भाग के बाद उन्हें इस गुटबाजी का फायदा भी मिला और वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए. राज्य स्थापना से ही प्रदेश में नेताओं की खेमेबाजी की शुरुआत पहली निर्वाचित सरकार में भी दिखाई दी. मुख्यमंत्री बनने की चाहत में कांग्रेस की पहली निर्वाचित सरकार में देहरादून से लेकर दिल्ली तक विधायकों की दौड़ रही. इसमें सबसे बड़ा और पहला नाम हरीश रावत का ही रहा.
ND ने मारा था हरीश रावत का हक: सबसे ज्यादा विधायकों का समर्थन पाए हरीश रावत ने मुख्यमंत्री बनने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया. हालांकि, कांग्रेस ने पैराशूट मुख्यमंत्री देकर नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री के लिए चुना. यूं तो नारायण दत्त तिवारी ने 5 साल तक सत्ता संभाली लेकिन इन 5 सालों में हरीश रावत की सरकार पर ही सवाल उठाती कई चिट्ठियां और बयान मीडिया में सुर्खियां बनी रहीं.
2012 में विजय बहुगुणा ने खाई सत्ता की मलाई: यही नहीं साल 2012 में जब एक बार फिर कांग्रेस की सरकार आई तब भी हरीश रावत सबसे ज्यादा विधायकों का समर्थन पाकर एक बड़े गुट का नेतृत्व कर मुख्यमंत्री के सबसे प्रबल दावेदार माने गए लेकिन फिर वही हुआ. पैराशूट मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा को पार्टी हाईकमान ने चुना. इस दौरान तो दिल्ली में हरीश रावत समर्थकों ने खूब हंगामा भी किया और हरीश रावत ने चुप्पी साध कर अपनी नाराजगी भी जाहिर की.
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धैर्य का नाम है हरीश रावत: एक बार तो लगा कि हरीश रावत कांग्रेस छोड़ ही देंगे. लेकिन हरीश रावत ने संयम बरतते हुए इंतजार किया. आखिरकार 2013 की आपदा के बाद विजय बहुगुणा के हटते ही उन्हें मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया. इस दौरान भी हरीश रावत के साथ सबसे ज्यादा विधायक रहे लेकिन दूसरे गुट के रूप में मौजूद विजय बहुगुणा खेमा कई विधायकों के साथ पार्टी छोड़ गया.
जहां हरीश रावत, वहां गुटबाजी: इसके बाद हाल ही में प्रीतम गुट और हरीश रावत गुट के बीच की आपसी तनातनी भी सबने देखी. प्रदेश की स्थापना के बाद एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि कांग्रेस में गुटबाजी खत्म हुई हो और हरीश रावत और विरोधी खेमा कभी एक हुआ हो. विरोधी गुट के कई बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने के बाद भी प्रीतम सिंह के साथ हरीश रावत गुट का 36 का आंकड़ा भी हमेशा दिखाई दिया.
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हरक की नजर में 'रायता' फैलाते हैं हरदा: उत्तराखंड कांग्रेस में गुटबाजी के इसी इतिहास को बयां करते हुए अब भाजपा नेता और कांग्रेस से बगावत करने वाले हरक सिंह रावत कहते हैं कि हरीश रावत जहां जाते हैं रायता फैला देते हैं. ऐसे में वो पंजाब में स्थितियों को सुधार पाएंगे, ऐसा नहीं लगता है. हरक सिंह रावत कहते हैं कि हरीश रावत को जिम्मेदारी तो दी गई है, लेकिन वह वहां और भी स्थितियों को खराब कर देंगे.
समर्थक हरीश रावत को मानते हैं सर्वमान्य नेता: वैसे इस मामले में हरीश रावत खेमे से जुड़े लोगों का अलग ही तर्क है. हरीश रावत के खास माने जाने वाले विधायक मनोज रावत कहते हैं कि उत्तराखंड में कांग्रेस की शुरुआत हरीश रावत से ही होती है और वे एक सर्वमान्य नेता हैं. वह कहते हैं कि पंजाब में उन्हें जो जिम्मेदारी मिली है, उसकी बदौलत वे पंजाब में स्थितियों को सुधारने का काम करेंगे. जहां तक हरक सिंह रावत का सवाल है, तो उन्होंने कांग्रेस को सम्मान नहीं मिलने के कारण छोड़ा था. अब उन्हें भाजपा में कैसा सम्मान मिल रहा है, यह सारी जनता जानती है.
सत्ता की महत्वाकांक्षा गलत भी नहीं: इस मामले में वरिष्ठ पत्रकार भगीरथ शर्मा कहते हैं कि सभी को राजनीति में सत्ता की महत्वाकांक्षा होती है. इस महत्वाकांक्षा को हरीश रावत में भी देखा गया. उन्होंने कई चिट्ठियां लिखीं जो कि लोगों की समस्या से जुड़ी थीं और यह चिट्टियां लिखना सही भी था. हालांकि, उन्होंने कहा कि यह चर्चाओं में है कि हरीश रावत जो उत्तराखंड में लगातार गुटबाजी को लेकर चर्चाओं में रहे हैं, वह पंजाब में गुटबाजी खत्म कर पाएंगे. अब वक्त की बताएगा कि हरीश रावत कामयाब हो पाते हैं या नहीं.