विकासनगरः उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता है, यहां कोने-कोने में देवी-देवताओं का वास है. यहां पर विराजमान आस्था के केंद्र, संस्कृति, लोक पर्व और परंपराएं इस पावन धरा को अलग पहचान दिलाते हैं. इसी कड़ी में जौनसार बावर के पाइंता पर्व भी शामिल है, जो अपने आप में बेहद अनूठा होता है. यहां पर उदपाल्टा और कुरौली दो गांव के लोग कई सालों से गागली युद्ध की परंपरा निभा कर पाइंता पर्व मना रहे हैं. यह पर्व दो कन्याओं के श्राप के पश्चाताप में मनाया जाता है. मान्यता है कि पाइंता पर्व पर दोनों परिवार में एक ही दिन दो कन्याओं का जन्म होगा तो उसी दिन से सदियों से चली आ रही यह परंपरा भी समाप्त होगी.
जनजातीय क्षेत्र जौनसार बाबर के उदपाल्टा और कुरौली गांव में ग्रामीणों ने पाइंता पर्व को बडे़ हर्षोल्लास के साथ मनाया. इस दौरान दोनों गांव के लोग घास की बनी रानी और मुनि की प्रतिमाओं को लेकर पंचायती आंगन में एकत्र हुए. जिसके बाद ढोल-दमाऊं की थाप और गाजे बाजे के साथ नृत्य किया. साथ ही गांव से कुछ दूरी पर दोनों कन्याओं की प्रतिमाएं विसर्जित की.
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वहीं, क्याणी नामक स्थान पर दोनों गांव के लोगों ने एक-दूसरे पर गागली के दलों (अरबी के डंठलों) से ढोल दमाऊं की थाप पर वार किए. जहां पर हंसी-खुशी के साथ दोनों गांव के लोगों ने यह परंपरा बखूबी निभाई. इस युद्ध में ना किसी की हार होती है, ना किसी की जीत. गागली युद्ध के बाद सभी ग्रामीणों ने एक-दूसरे के गले लगकर पाइतां पर्व की बधाई दी. उधर, महिला, पुरुष और बच्चों ने पंचायती आंगन में एकत्र होकर पारंपरिक नृत्य हारूल, तांदी नृत्य कर पाइतां पर्व मनाया.
ये है मान्यता
मान्यता है कि करीब 400 साल पहले उदपाल्टा गांव की दो परिवारों की रानी और मुनि नाम की दो कन्याएं थी. गांव में पानी की सुविधा ना होने के कारण लोग कुएं से पानी भरा करते थे. जहां पर दोनों कन्याएं कुएं में पानी भरने गई. जिसमें एक कन्या रानी पानी भरते समय पैर फिसलने से कुएं में गिर गई और डूब गई. जिससे उसकी मौत हो गई.
उधर, दूसरी कन्या मुनि ने गांव पहुंचकर लोगों को रानी के कुएं में डूबने की बात बताई. जिसपर ग्रामीणों ने उसे खूब डांट फटकार लगाई. जिससे सुनकर मुनि क्षुब्ध हो गई. इतना ही नहीं उसने भी उसी कुएं में जाकर छलांग लगा दी और अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी.
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इस घटना के बाद दोनों गांव के ग्रामीण घास के पुतले बनाकर अष्टमी के दिन पूजा-अर्चना करते हैं. विजयदशमी (दशहरा) के दिन गाजे-बाजे के साथ सभी ग्रामीण हाथ में दोनों लड़कियों की घास से बनी प्रतिमाएं लेकर विसर्जित भी करते हैं.
ऐसी भी मान्यता है कि दोनों परिवारों में आपस में झगड़ा हुआ होगा. साथ ही एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे होंगे. जिसके बाद यह परंपरा आज भी गागली के डंठलों से युद्धकर निभाई जाती है. इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए यह परंपरा तब समाप्त होगी, जब पाइतां पर्व पर दोनों परिवारों के घर में अलग-अलग दो कन्या जन्म लेगी.