देहरादून: कुछ दिनों में उत्तराखंड पूरे 19 साल का हो जाएगा. इस कड़ी में आज हम आपको इस पहाड़ी प्रदेश की ऐसी सच्चाई से रूबरू कराएंगे, जो 19 साल पहले भी ऐसी ही थी और आज भी ऐसी ही है. यहां बात हो रही है राजधानी की. राजधानी की बात जब भी जेहन में आती है तो मन के अंदर दो सुंदर जगहों की तस्वीर उभर आती है. पहला तीन पहाड़ियों के बीच बसी खूबसूरत दून घाटी और गैरसैंण. लेकिन, राजनैतिक अति महत्वकांक्षाओं के चलते स्थायी राजधानी का सपना आज भी पूरा नहीं हो पाया है.
चलिए, इस बात का जिक्र थोड़ी देर बाद करेंगे, फिलहाल बात करते हैं विधानसभा भवन की. ये बात बहुत कम लोगों को पता है कि साल 2000 में उत्तरप्रदेश से अलग होने के बाद पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड का पहला विधानसभा सत्र एक त्रिपाल के नीचे हुआ था.
साल 2000 के नवंबर माह में देश के 3 नए राज्यों का गठन हुआ था. छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड. इन तीन राज्यों में उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है, जहां दो विधानसभा भवन हैं. कुछ वर्ष पहले हरीश रावत की सरकार के वक्त गैरसैंण में विधानसभा भवन का निर्माण किया गया. गैरसैंण विधानसभा भवन की भव्यता भी कम नहीं है.
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अब जरा अन्य दो राज्यों की विधानसभा भवन की ओर नजर दौड़ाते हैं. झारखण्ड में 29 एकड़ में फैला विधानसभा भवन 465 करोड़ की लागत से बना है. ये विधानसभा भवन देश की चंद बेहतरीन इमारतों में शुमार है. वहीं, छत्तीसगढ़ भी कुछ पीछे नहीं. हालांकि गैरसैंण विधानसभा भवन बनने से पहले उत्तराखंड का विधानसभा भवन विकास भवन में है. अभी भी ज्यादातर सत्र का संचालन देहरादून के विकास भवन में ही चलता है.
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जब त्रिपाल के नीचे हुआ पहला विधानसभा सत्र
उत्तराखंड विधानसभा भवन की कहानी शुरू होती है, संसद में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम पास होने के साथ. उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि जब साल 2000 में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम संसद में पास हुआ था. तत्कालीन कैबिनेट सेक्रेटरी कमल पांडे ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखा और बताया कि नया राज्य तो बन चुका है, बिल भी पास हो गया है. लेकिन अब ये बताएं कि कर्मचारियों का बंटवारा और संपत्तियों का बंटवारा कैसे होगा? इसके अलावा केंद्रीय कैबिनेट सेक्रेटरी द्वारा उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को जो पत्र लिखा गया था, ये भी पूछा गया कि नए राज्य की राजधानी कहां होगी? हाई कोर्ट कहां होगा? सब कुछ स्पष्ठ करें, ताकि व्यवस्था की जा सके. शुरू से ही उत्तराखंड के राजनीतिक ध्रुवों के चलते कुछ सुनिश्चित नहीं हो पाया.
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हालांकि भावनात्मक रूप से राजधानी का केंद्र गैरसैंण ही रहा, लेकिन सरकारी मुहर न लग सकी. तब से लेकर अब तक राजधानी का मुद्दा सियासी वातावरण में ही तैर रहा है. जिस पर आज भी सत्ता पर बैठे दल का कोई भी नेता खुलकर बोलने के लिए तैयार नहीं है. बहरहाल, राजधानी का मुद्दा उत्तराखंड में शुरू से ही एक बड़ा सियासी मुद्दा रहा है. इसका इस्तेमाल राजनीतिक धुरंधर अपने-अपने तरीके से करते आए हैं. लेकिन, अगर बात केवल उस भवन की करें. जहां पर बैठकर प्रदेश की अलग-अलग विधानसभाओं से चुनकर आए विधायक प्रदेश की नीतियों का निर्धारण करते हैं. वे राज्य गठन के बाद राजधानी को लेकर कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाए.
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राज्य गठन की तारीख 9 नवंबर तय हो चुकी थी. इसके लिए वरिष्ठ आईएएस अधिकारी आरएस टोलिया को ओएसडी यानी ऑफिसर्स इन स्पेशल ड्यूटी की जिम्मेदारी दी गई थी. राजधानी के झूलते मुद्दे के बीच तय किया गया कि फिलहाल देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाया जाए और फिर खोज शुरू हुई, उस भवन की जहां पहला विधानसभा सत्र आहूत किया जाना था. ये खोज खत्म हुई रिस्पना पुल के पास मौजूद विकास भवन पर जाकर. फिर पहली बार यहां त्रिपाल के नीचे विधानसभा सत्र आहूत की गई. नया राज्य मिलने के जोश में हालांकि ये कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन इसके बाद भी हालात नहीं सुधर पाए. वक्त बीतता गया और आज विकास भवन ही विधानसभा के नाम से जाना जाने लगा. इसके कुछ पुरानी यादें ताजा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि शुरुआती दौर में विधानसभा सत्र में आग लग गई थी और कई बार माननीय विधायक कुर्सियों से टूट कर धड़ाम गिर जाते थे. जिसके बाद तमाम जांच हुई, लेकिन आज भी हालात कुछ ज्यादा बेहतर नहीं हो पाए हैं.