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मसूरी का ऐतिहासिक मौण मेला कोरोना के चलते स्थगित

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Published : Jun 29, 2021, 8:01 PM IST

अगलाड़ नदी में राजशाही के वक्त से मनाए जा रहे मौण मेला कोरोना संक्रमण के चलते स्थगित कर दिया गया है.

Maun Mela postponed
मौण मेला स्थगित

मसूरी: अगलाड़ नदी में हर साल जून महीने में आयोजित होने वाला मौण मेला कोरोना महामारी के कारण स्थगित हो गया है. पिछले साल भी कोरोना को लेकर मौण मेले को स्थगित किया गया था. बता दें कि टिहरी गढ़वाल के बंदरकोट में ऐतिहासिक मौण मेले का आयोजन हर साल जून माह के अंत में यमुना की सहायक नदी अगलाड़ नदी में होता है. मेले में सामूहिक रूप में मच्छलियां पकड़ी जाती है. जिसमें जौनसार, रवाईं घाटी और जौनपुर के लालूर, सिलवाड़ और इडवालस्यूं पट्टी के लोग मेले में भाग लेते हैं.

मौण मेला विकास समिति के अध्यक्ष महिपाल सिंह सजवाण ने बताया कि पिछले साल भी कोरोना महामारी के चलते मौण मेला स्थगित कर दिया गया था. इस वर्ष भी कोरोना के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए समिति ने निर्णय लिया है कि इस वर्ष भी मेले का आयोजना नहीं किया जाए. उन्होंने बताया कि यह मौण मेला राजशाही के समय से चलता आ रहा है. जिसको निरंतर ग्रामीणों ने इस परंपरा को आज तक भी बनाए रखा है.

पढ़ें-153 साल पुरानी है मसूरी की 'मौण' परंपरा, मछली पकड़ने के लिए होता है मेले का आयोजन

बता दें कि मानसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने का सामूहिक मौण मेला मनाया जाता है. मेले में हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और बुजुर्ग नदी में मछलियां पकड़ने उतरते हैं. खास बात यह है कि इस मेले में पर्यावरण संरक्षण का भी ध्यान रखा जाता है.

टिमरू का पाउडर मौण के रूप में उपयोग किया जाता है

मेले में टिमरू का पाउडर बनाकर नदी में डाला जाता है. स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि ऐतिहासिक मौण मेले में टिमरू का पाउडर डालने की बारी हर साल का जिम्मा सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों की रहती है. लालुर पट्टी के देवन, घंसी, सड़कसारी, मिरियागांव, छानी, टिकरी, ढ़करोल और सल्टवाड़ी गाव के लोग टिमरू का पाउडर बनाने में सहयोग करते हैं.

ग्रामीण पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ टिमरू का पाउडर अगलाड़ नदी में डालते हैं. जिससे नदी में मछलियां बेहोश हो जाती हैं और मच्छली को पकड़ने के लिए नदी में तीन किमी क्षेत्र में हजारों की संख्या में ग्रामीण पारंपरिक उपकरणों से उन्हें पकड़ने के लिये उतरते हैं.

मछली को मानते हैं प्रसाद

मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती हैं. जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं और घर में मेहमानों को परोसते हैं. वहीं, मेले में पारंपरिक लोक नृत्य भी किया जाता है, जो ढोल की थाप पर होता है. मौण का समय सुबह 10 बजे से लेकर शाम 4 बजे होता है.

जल वैज्ञानिकों के राय

जल वैज्ञानिकों का कहना है कि टिमरू का पाउडर जल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है. मात्र कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती है. वहीं, हजारों की संख्या में जब लोग नदी की धारा में चलते हैं तो नदी के तल में जमा काई और गंदगी साफ होकर पानी में बह जाती है.

पढ़ें-पंचाचूली ग्राउंड जीरो पर पहुंचा ETV भारत, देखिए EXCLUSIVE रिपोर्ट

मौण मेले का इतिहास

ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ 1911 में तत्कालीन टिहरी नरेश सुदर्शन शाह ने किया था. तब से जौनपुर में निरंतर इस मेले का आयोजन किया जा रहा है. मौण मेला राजा के शासन काल से मनाया जाता था. क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश स्वयं अपने लाव-लश्कर एवं रानियों के साथ मौजूद रहा करते थे. मौण मेले में सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे.

मसूरी: अगलाड़ नदी में हर साल जून महीने में आयोजित होने वाला मौण मेला कोरोना महामारी के कारण स्थगित हो गया है. पिछले साल भी कोरोना को लेकर मौण मेले को स्थगित किया गया था. बता दें कि टिहरी गढ़वाल के बंदरकोट में ऐतिहासिक मौण मेले का आयोजन हर साल जून माह के अंत में यमुना की सहायक नदी अगलाड़ नदी में होता है. मेले में सामूहिक रूप में मच्छलियां पकड़ी जाती है. जिसमें जौनसार, रवाईं घाटी और जौनपुर के लालूर, सिलवाड़ और इडवालस्यूं पट्टी के लोग मेले में भाग लेते हैं.

मौण मेला विकास समिति के अध्यक्ष महिपाल सिंह सजवाण ने बताया कि पिछले साल भी कोरोना महामारी के चलते मौण मेला स्थगित कर दिया गया था. इस वर्ष भी कोरोना के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए समिति ने निर्णय लिया है कि इस वर्ष भी मेले का आयोजना नहीं किया जाए. उन्होंने बताया कि यह मौण मेला राजशाही के समय से चलता आ रहा है. जिसको निरंतर ग्रामीणों ने इस परंपरा को आज तक भी बनाए रखा है.

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बता दें कि मानसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने का सामूहिक मौण मेला मनाया जाता है. मेले में हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और बुजुर्ग नदी में मछलियां पकड़ने उतरते हैं. खास बात यह है कि इस मेले में पर्यावरण संरक्षण का भी ध्यान रखा जाता है.

टिमरू का पाउडर मौण के रूप में उपयोग किया जाता है

मेले में टिमरू का पाउडर बनाकर नदी में डाला जाता है. स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि ऐतिहासिक मौण मेले में टिमरू का पाउडर डालने की बारी हर साल का जिम्मा सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों की रहती है. लालुर पट्टी के देवन, घंसी, सड़कसारी, मिरियागांव, छानी, टिकरी, ढ़करोल और सल्टवाड़ी गाव के लोग टिमरू का पाउडर बनाने में सहयोग करते हैं.

ग्रामीण पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ टिमरू का पाउडर अगलाड़ नदी में डालते हैं. जिससे नदी में मछलियां बेहोश हो जाती हैं और मच्छली को पकड़ने के लिए नदी में तीन किमी क्षेत्र में हजारों की संख्या में ग्रामीण पारंपरिक उपकरणों से उन्हें पकड़ने के लिये उतरते हैं.

मछली को मानते हैं प्रसाद

मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती हैं. जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं और घर में मेहमानों को परोसते हैं. वहीं, मेले में पारंपरिक लोक नृत्य भी किया जाता है, जो ढोल की थाप पर होता है. मौण का समय सुबह 10 बजे से लेकर शाम 4 बजे होता है.

जल वैज्ञानिकों के राय

जल वैज्ञानिकों का कहना है कि टिमरू का पाउडर जल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है. मात्र कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती है. वहीं, हजारों की संख्या में जब लोग नदी की धारा में चलते हैं तो नदी के तल में जमा काई और गंदगी साफ होकर पानी में बह जाती है.

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मौण मेले का इतिहास

ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ 1911 में तत्कालीन टिहरी नरेश सुदर्शन शाह ने किया था. तब से जौनपुर में निरंतर इस मेले का आयोजन किया जा रहा है. मौण मेला राजा के शासन काल से मनाया जाता था. क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश स्वयं अपने लाव-लश्कर एवं रानियों के साथ मौजूद रहा करते थे. मौण मेले में सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे.

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