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हरीश रावत की बेटी अनुपमा ने लिया पिता की हार का बदला, लेकिन हरदा नहीं बचा पाए साख

उत्तराखंड चुनावी परिणाम आने के साथ ही प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने और हरीश रावत के सीएम बनने का सपना टूट गया. क्योंकि जहां जनता ने कांग्रेस को नकार दिया, वहीं, हरदा दूसरी बार लगातार अपनी साख बचाने में विफल साबित हुए. हालांकि, अनुपमा रावत ने अपने पिता की हार का बदला ले लिया.

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अपनी साख नहीं बचा पाए हरदा
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Published : Mar 10, 2022, 2:47 PM IST

Updated : Mar 10, 2022, 4:37 PM IST

देहरादून: 'या तो मुख्यमंत्री बनूंगा या घर बैठूंगा'... लगता है जब पूर्व सीएम हरीश रावत ये बयान दे रहे थे तो उनके मुंह में सरस्वती बैठी थी. ठीक ऐसा ही हुआ. न हरीश रावत चुनाव जीते, न वो सीएम बन सकेंगे और अब वो घर ही बैठेंगे. उत्तराखंड की राजनीति के धुरंधर माने जाने वाले पूर्व सीएम हरीश रावत की ये हार उनके राजनीतिक करियर का अंत भी मानी जा रही है. हालांकि, इस दफा बेटी अनुपमा की हरिद्वार ग्रामीण सीट से जीत ने हरदा के जख्म पर थोड़ा मरहम लगाने का काम जरूर किया है. बेटी अनुपमा ने अपने पिता की हार का बदला तो ले लिया, लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाने वाले हरदा लगातार दूसरी बार भी अपनी साख बचाने में नाकाम रहे.

लालकुआं से हारे हरीश रावत: साल 2022 के दंगल में हरीश रावत कांग्रेस के टिकट पर लालकुआं सीट से चुनावी मैदान में थे, लेकिन बीजेपी के प्रत्याशी मोहन सिंह बिष्ट उन्हें करीब 13 हजार 893 वोटों से पटखनी देने में कामयाब रहे. हालांकि, चुनाव परिणाम आने से पहले हरदा कांग्रेस की जीत और खुद को सीएम चेहरा होने का दम भरते रहे, लेकिन प्रदेश की जनता ने उनके साथ ही कांग्रेस को भी एक बार फिर से नकार दिया.

ये भी पढ़ें: हार के साथ ही हरदा के राजनीतिक करियर पर लगा फुल स्टॉप! क्या अब घर बैठेंगे हरीश रावत?

2017 में दो सीटों से हारे थे: बता दें कि, 2017 में हरीश रावत हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा सीट से चुनावी मैदान में उतरे थे, लेकिन स्वामी यतीश्वरानंद और राजेश शुक्ला के सामने उनकी जमानत जब्त हो गई थी. वहीं, इस बार हरदा एक बार फिर से एड़ी चोटी का जोर लगाकर बीजेपी की विजय रथ रोकने का दम भर रहे थे, लेकिन कांग्रेस के 'सेनापति' हरदा को इस बार भी जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

केंद्र में मंत्री भी रहे हैं हरीश रावत: एक वक्त था जब प्रदेश से लेकर केंद्र की सियासत में हरीश रावत का बड़ा कद था. केंद्र की मनमोहन सरकार में वो केंद्रीय जल संसाधन मंत्री रहे हैं. वहीं, 2014 में उन्होंने उत्तराखंड की कमान संभाली थी, जब उनको विजय बहुगुणा के स्थान पर मुख्यमंत्री पद सौंपा गया था. इसके साथ ही वो कांग्रेस के सांसद और राष्ट्रीय महासचिव जैसे पदों पर रहे चुके हैं. इसके बावजूद उनकी साख 2016 के बाद कांग्रेस के साथ-साथ प्रदेश की जनता के बीच गिरती रही.

ये भी पढ़ें: हरिद्वार ग्रामीण सीट पर बड़ा उलटफेर, यतीश्वरानंद का तिलिस्म तोड़ते हुए अनुपमा रावत ने जीता चुनाव

हरीश रावत के राजनीतिक पतन के कारण: सत्ता के शीर्ष पर रहे हरीश रावत के पतन का क्या कारण रहा, इसे समझने के लिए हमें कुछ पहलुओं को समझना होगा. उत्तराखंड के साथ-साथ पूरे प्रदेश की जनता ने 2017 में हरीश रावत पर किए गए स्टिंग ऑपरेशन को देखा था, जब वह मुख्यमंत्री थे. इसके साथ ही रावत सरकार अपने मंत्रियों और बागियों को रोकने में नाकाम रही, जिसकी वजह से न सिर्फ 2017 में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा, बल्कि हरीश रावत दो-दो सीटों से चुनाव लड़ने के बावजूद अपनी साख बचाने में नाकाम रहे.

गुटबाजी ने किया बेड़ा गर्क: 2017 की हार के बाद से प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी हावी होने लगी और हरदा, इंदिरा और प्रीतम खेमों में पार्टी बंट गई. जिसका कहीं न कहीं लाभ बीजेपी को ही मिला. कमजोर विपक्ष होने के साथ ही पार्टी में सिर फुटव्वल होने की वजह से कांग्रेस जनता की नब्ज टटोलने में नाकामयाब दिखी. वहीं, सीएम पद की लालसा हरीश रावत के साथ-साथ पार्टी को भी ले डूबी.

ये भी पढ़ें: लालकुआं के चुनावी युद्ध में चित हुए हरीश रावत, BJP के मोहन बिष्ट ने 14 हजार से ज्यादा वोट से हराया

फीका पड़ता चला गया हरीश रावत का जादू: कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत का जादू समय के साथ फीका पड़ता चला गया. यही वजह रही कि हरीश रावत की पिछले दो विधानसभा चुनावों में तीन सीटों पर उनकी जमानत जब्त हो गई. हालांकि, इस बार के चुनाव में कांग्रेस की सीटें जरूर बढ़ी हैं, लेकिन इसके पीछे हरदा फैक्टर नहीं, बल्कि सरकार के खिलाफ जनता का रोष है, जिसकी वजह से बीजेपी को कई सीटों पर नुकसान हुआ है. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी अभी भी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई है. हरीश रावत की लगातार दूसरी बड़ी हार से प्रदेश के सियासी गलियारों में सवाल उठने लगा है कि क्या हरदा का सियासत से संन्यास लेने का वक्त आ गया है ?

देहरादून: 'या तो मुख्यमंत्री बनूंगा या घर बैठूंगा'... लगता है जब पूर्व सीएम हरीश रावत ये बयान दे रहे थे तो उनके मुंह में सरस्वती बैठी थी. ठीक ऐसा ही हुआ. न हरीश रावत चुनाव जीते, न वो सीएम बन सकेंगे और अब वो घर ही बैठेंगे. उत्तराखंड की राजनीति के धुरंधर माने जाने वाले पूर्व सीएम हरीश रावत की ये हार उनके राजनीतिक करियर का अंत भी मानी जा रही है. हालांकि, इस दफा बेटी अनुपमा की हरिद्वार ग्रामीण सीट से जीत ने हरदा के जख्म पर थोड़ा मरहम लगाने का काम जरूर किया है. बेटी अनुपमा ने अपने पिता की हार का बदला तो ले लिया, लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाने वाले हरदा लगातार दूसरी बार भी अपनी साख बचाने में नाकाम रहे.

लालकुआं से हारे हरीश रावत: साल 2022 के दंगल में हरीश रावत कांग्रेस के टिकट पर लालकुआं सीट से चुनावी मैदान में थे, लेकिन बीजेपी के प्रत्याशी मोहन सिंह बिष्ट उन्हें करीब 13 हजार 893 वोटों से पटखनी देने में कामयाब रहे. हालांकि, चुनाव परिणाम आने से पहले हरदा कांग्रेस की जीत और खुद को सीएम चेहरा होने का दम भरते रहे, लेकिन प्रदेश की जनता ने उनके साथ ही कांग्रेस को भी एक बार फिर से नकार दिया.

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2017 में दो सीटों से हारे थे: बता दें कि, 2017 में हरीश रावत हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा सीट से चुनावी मैदान में उतरे थे, लेकिन स्वामी यतीश्वरानंद और राजेश शुक्ला के सामने उनकी जमानत जब्त हो गई थी. वहीं, इस बार हरदा एक बार फिर से एड़ी चोटी का जोर लगाकर बीजेपी की विजय रथ रोकने का दम भर रहे थे, लेकिन कांग्रेस के 'सेनापति' हरदा को इस बार भी जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

केंद्र में मंत्री भी रहे हैं हरीश रावत: एक वक्त था जब प्रदेश से लेकर केंद्र की सियासत में हरीश रावत का बड़ा कद था. केंद्र की मनमोहन सरकार में वो केंद्रीय जल संसाधन मंत्री रहे हैं. वहीं, 2014 में उन्होंने उत्तराखंड की कमान संभाली थी, जब उनको विजय बहुगुणा के स्थान पर मुख्यमंत्री पद सौंपा गया था. इसके साथ ही वो कांग्रेस के सांसद और राष्ट्रीय महासचिव जैसे पदों पर रहे चुके हैं. इसके बावजूद उनकी साख 2016 के बाद कांग्रेस के साथ-साथ प्रदेश की जनता के बीच गिरती रही.

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हरीश रावत के राजनीतिक पतन के कारण: सत्ता के शीर्ष पर रहे हरीश रावत के पतन का क्या कारण रहा, इसे समझने के लिए हमें कुछ पहलुओं को समझना होगा. उत्तराखंड के साथ-साथ पूरे प्रदेश की जनता ने 2017 में हरीश रावत पर किए गए स्टिंग ऑपरेशन को देखा था, जब वह मुख्यमंत्री थे. इसके साथ ही रावत सरकार अपने मंत्रियों और बागियों को रोकने में नाकाम रही, जिसकी वजह से न सिर्फ 2017 में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा, बल्कि हरीश रावत दो-दो सीटों से चुनाव लड़ने के बावजूद अपनी साख बचाने में नाकाम रहे.

गुटबाजी ने किया बेड़ा गर्क: 2017 की हार के बाद से प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी हावी होने लगी और हरदा, इंदिरा और प्रीतम खेमों में पार्टी बंट गई. जिसका कहीं न कहीं लाभ बीजेपी को ही मिला. कमजोर विपक्ष होने के साथ ही पार्टी में सिर फुटव्वल होने की वजह से कांग्रेस जनता की नब्ज टटोलने में नाकामयाब दिखी. वहीं, सीएम पद की लालसा हरीश रावत के साथ-साथ पार्टी को भी ले डूबी.

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फीका पड़ता चला गया हरीश रावत का जादू: कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत का जादू समय के साथ फीका पड़ता चला गया. यही वजह रही कि हरीश रावत की पिछले दो विधानसभा चुनावों में तीन सीटों पर उनकी जमानत जब्त हो गई. हालांकि, इस बार के चुनाव में कांग्रेस की सीटें जरूर बढ़ी हैं, लेकिन इसके पीछे हरदा फैक्टर नहीं, बल्कि सरकार के खिलाफ जनता का रोष है, जिसकी वजह से बीजेपी को कई सीटों पर नुकसान हुआ है. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी अभी भी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई है. हरीश रावत की लगातार दूसरी बड़ी हार से प्रदेश के सियासी गलियारों में सवाल उठने लगा है कि क्या हरदा का सियासत से संन्यास लेने का वक्त आ गया है ?

Last Updated : Mar 10, 2022, 4:37 PM IST
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