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देवभूमि में यहां एक महीने के बाद मनाई जाती है दीपावली

दीपावली के ठीक एक माह बाद जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाया जाता है.अतीत की इस परंपरा को लोग आज भी संजोए हुए हैं और इस पर्व को लोग आत्मीयता ढंग से मनाते हैं.

vikasnagar news
जौनसारी दीपावली
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Published : Oct 31, 2020, 9:49 AM IST

Updated : Oct 31, 2020, 11:06 AM IST

विकासनगरः जौनसार बावर में भी दीपावली का पर्व बड़ा खास है. यहां दीपावली कुछ अलग अंदाज में मनाई जाती है. जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर के कई गांवों में आज भी कार्तिक शुल्क पक्ष की अमावस्या के ठीक एक माह बाद दीपावली का जश्न मनाया जाता है. अतीत की इस परंपरा को लोग आज भी संजोए हुए हैं और इस पर्व को लोग आत्मीयता ढंग से मनाते हैं. जिसमें स्थानीय फसलों के व्यंजन भी बनाए जाते हैं. पर्व को लेकर लोगों में खासा उत्साह देखने को मिलता है.

गौर हो कि दीपावली के ठीक एक माह बाद जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाया जाता है. जिसे स्थानीय भाषा में दीयाई कहा जाता है. जो कई दिनों तक मनाई जाती है. पहले दिन को लागदे कहते हैं, इस दिन गांव से कुछ दूर पर पांरपरिक तरीके से पतली लकड़ियों का ढेर बनाया जाता है. जबकि, रात को (बीयाटी) विमल की पतली लकड़ियां के मशाल तैयार किया जाता है. इसे होला कहा जाता है. इतना ही नहीं घर में जितने पुरुष होते हैं, उतने ही होला बनाए जाते हैं.

रंगकर्मी नंदलाल भारती से खास बातचीत.

ये भी पढ़ेंः कालाढूंगीः युवतियां तैयार कर रहीं स्वदेशी इलेक्ट्रिक झालर, लोग खूब कर रहे पसंद

रात के समय सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल-दमाऊ के साथ नाचते गाते हुए आग जलाते हैं. जिसके बाद दिवाली के गीत गाते हुए वापस गांव आते हैं. जबकि, दूसरी दिन यानी अमावस्या की रात लोग जागरण करते हैं. इसे स्थानीय भाषा में (आंवसारात) कहते हैं. गांव के पंचायती आंगन में अलाव जला दिया जाता है.

वहीं, आंगन में आकर विरुड़ी मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं. विरुड़ी में गांव के लोग आंगन में इकठ्ठे होते हैं. विरुड़ी ही दिवाली का खास अवसर होता है जब हर घर के लोग आंगन में अखरोट इकट्ठा करते हैं. साथ ही गीत गाते हैं, गीत के बाद आंगन में गांव का मुखिया अखरोट बिखेरता है. जिसे ग्रामीण अपनी क्षमता अनुसार उठाते हैं.

इस तरह तैयार किया जाता है चिवड़ा
दीपावली में चिवड़ा का खास महत्व है. इसे तैयार करने के लिए पहले धान को भिगोया जाता है. बाद में इसे भूनकर ओखली में कूटा जाता है. जिससे चावल पतला हो जाता है और भूसा अलग करने के बाद चिवड़ा तैयार हो जाता है. चिवड़ा तैयार होने के बाद लोगों को बांटा जाता है.

ये भी पढ़ेंः भर दो झोली मेरी या मोहम्मद...की सूफी धुन पर मस्तमलंग दिखे मस्त, दिखाए हैरतअंगेज करतब

इसके अलावा दीपावली में विभिन्न प्रकार के स्थानीय व्यंजन बनाए जाते हैं. कई गांव में हिरण और कहीं हाथी बनाए जाते हैं. जिसमें सवार होकर गांव का मुखिया नाचते हैं. आखिरी रात को हाथी बनाया जाता है. जिसके ऊपर गांव का मुखिया दो तलवारें लेकर बैठता है. जबकि, ग्रामीण आंगन में पारंपरिक नृत्य करते हैं.

जौनसार बावर में एक महीने बाद दीपावली मनाने की यह परंपरा
संस्कृति और रंगकर्मी नंदलाल भारती ने बताया कि माना जाता है कि भगवान श्री राम के अयोध्या लौटने की सूचना जौनसार बावर में एक महीने बाद मिली थी. जिसके कारण यहां दीपावली (बूढ़ी दिवाली) एक महीने बाद मनाई जाती है. उन्होंने कहा कि दीपावली से पहले कृषि से संबंधित कई कार्य पूरे कर लिए जाते हैं. जिसमें विभिन्न प्रकार की फसलों की कटाई और बुआई शामिल हैं. साथ ही मवेशियों के लिए घास इकठ्ठा किया जाता है.

माना जाता है कि दीपावली के बाद बर्फबारी भी शुरू हो जाती है. जिस कारण से लोग अपना कृषि कार्य को पूरा कर फुर्सत के क्षणों में हर्ष और उल्लास के साथ दीपावली मनाते हैं. साथ ही उन्होंने बताया कि सभी त्योहार इष्ट देवता महासू के लिए समर्पित होते हैं.

विकासनगरः जौनसार बावर में भी दीपावली का पर्व बड़ा खास है. यहां दीपावली कुछ अलग अंदाज में मनाई जाती है. जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर के कई गांवों में आज भी कार्तिक शुल्क पक्ष की अमावस्या के ठीक एक माह बाद दीपावली का जश्न मनाया जाता है. अतीत की इस परंपरा को लोग आज भी संजोए हुए हैं और इस पर्व को लोग आत्मीयता ढंग से मनाते हैं. जिसमें स्थानीय फसलों के व्यंजन भी बनाए जाते हैं. पर्व को लेकर लोगों में खासा उत्साह देखने को मिलता है.

गौर हो कि दीपावली के ठीक एक माह बाद जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली का जश्न मनाया जाता है. जिसे स्थानीय भाषा में दीयाई कहा जाता है. जो कई दिनों तक मनाई जाती है. पहले दिन को लागदे कहते हैं, इस दिन गांव से कुछ दूर पर पांरपरिक तरीके से पतली लकड़ियों का ढेर बनाया जाता है. जबकि, रात को (बीयाटी) विमल की पतली लकड़ियां के मशाल तैयार किया जाता है. इसे होला कहा जाता है. इतना ही नहीं घर में जितने पुरुष होते हैं, उतने ही होला बनाए जाते हैं.

रंगकर्मी नंदलाल भारती से खास बातचीत.

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रात के समय सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल-दमाऊ के साथ नाचते गाते हुए आग जलाते हैं. जिसके बाद दिवाली के गीत गाते हुए वापस गांव आते हैं. जबकि, दूसरी दिन यानी अमावस्या की रात लोग जागरण करते हैं. इसे स्थानीय भाषा में (आंवसारात) कहते हैं. गांव के पंचायती आंगन में अलाव जला दिया जाता है.

वहीं, आंगन में आकर विरुड़ी मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं. विरुड़ी में गांव के लोग आंगन में इकठ्ठे होते हैं. विरुड़ी ही दिवाली का खास अवसर होता है जब हर घर के लोग आंगन में अखरोट इकट्ठा करते हैं. साथ ही गीत गाते हैं, गीत के बाद आंगन में गांव का मुखिया अखरोट बिखेरता है. जिसे ग्रामीण अपनी क्षमता अनुसार उठाते हैं.

इस तरह तैयार किया जाता है चिवड़ा
दीपावली में चिवड़ा का खास महत्व है. इसे तैयार करने के लिए पहले धान को भिगोया जाता है. बाद में इसे भूनकर ओखली में कूटा जाता है. जिससे चावल पतला हो जाता है और भूसा अलग करने के बाद चिवड़ा तैयार हो जाता है. चिवड़ा तैयार होने के बाद लोगों को बांटा जाता है.

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इसके अलावा दीपावली में विभिन्न प्रकार के स्थानीय व्यंजन बनाए जाते हैं. कई गांव में हिरण और कहीं हाथी बनाए जाते हैं. जिसमें सवार होकर गांव का मुखिया नाचते हैं. आखिरी रात को हाथी बनाया जाता है. जिसके ऊपर गांव का मुखिया दो तलवारें लेकर बैठता है. जबकि, ग्रामीण आंगन में पारंपरिक नृत्य करते हैं.

जौनसार बावर में एक महीने बाद दीपावली मनाने की यह परंपरा
संस्कृति और रंगकर्मी नंदलाल भारती ने बताया कि माना जाता है कि भगवान श्री राम के अयोध्या लौटने की सूचना जौनसार बावर में एक महीने बाद मिली थी. जिसके कारण यहां दीपावली (बूढ़ी दिवाली) एक महीने बाद मनाई जाती है. उन्होंने कहा कि दीपावली से पहले कृषि से संबंधित कई कार्य पूरे कर लिए जाते हैं. जिसमें विभिन्न प्रकार की फसलों की कटाई और बुआई शामिल हैं. साथ ही मवेशियों के लिए घास इकठ्ठा किया जाता है.

माना जाता है कि दीपावली के बाद बर्फबारी भी शुरू हो जाती है. जिस कारण से लोग अपना कृषि कार्य को पूरा कर फुर्सत के क्षणों में हर्ष और उल्लास के साथ दीपावली मनाते हैं. साथ ही उन्होंने बताया कि सभी त्योहार इष्ट देवता महासू के लिए समर्पित होते हैं.

Last Updated : Oct 31, 2020, 11:06 AM IST
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