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अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव से उत्तराखंड के काश्तकारों को कितना लाभ?

देहरादून में 24 सितंबर से चल रहे तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का विधिवत समापन हो गया. कहने को तो ये अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव था, लेकिन यह कुछ राज्यों तक ही सीमित रहा. जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश को छोड़ दें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सेब उत्पादन को लेकर किसी भी राज्य के प्रतिनिधि ने हिस्सा नहीं लिया. आइये समझते हैं कि आखिर इस सेब महोत्सव उत्तराखंड के सेब काश्तकारों को कितना फायदा पहुंचा.

apple production in uttarakhand
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Published : Sep 26, 2021, 7:55 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड को हिमाचल और जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर सेब उत्पादन में नई पहचान दिलाने को सरकार प्रयासरत है. इसके लिए राज्य सरकार ने 24 से 26 सितंबर तक अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का आयोजन किया. सेब महोत्सव का आज आखिरी दिन था. उत्तराखंड में किसानों को फायदा पहुंचाने और सेब उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर स्थिति में लाने के लिए देहरादून में पहली बार अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का आयोजन किया गया. इस महोत्सव में किसानों को सेब उत्पादन और उनकी किस्मों के बारे में बारीकी से जानकारी भी दी गई.

महोत्सव में दिखीं सेब की 16 किस्में: अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव में न्यूजीलैंड, अमेरिका और चीन के सेब को प्रदर्शनी में रखा गया. वहीं, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की अलग-अलग किस्म को भी प्रदर्शनी में जगह दी गई. प्रदर्शनी में कुल 16 तरह के सेब की किस्म में मौजूद थी, जिसमें रेड डिलीशियस, रॉयल डिलीशियस, रेड गोल्ड, रिचए रेड, गोल्डन डिलीशियस, ऑर्गन स्पर, रेड चीफ, रेड फ्यूजी, गेल गाला, राइमर, ग्रैनी स्मिथ, सिल्वर स्पर, रेड वैलाक्सटार, क्रिम्सन सुपर, और चीफवांस डिलीशियस शामिल है.

सेब महोत्सव से उत्तराखंड के काश्तकारों को कितना लाभ?

देहरादून में कहने को तो अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव था लेकिन ये कुछ राज्यों तक ही सीमित रहा. जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश को छोड़ दे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सेब उत्पादन को लेकर किसी भी प्रतिनिधि ने हिस्सा नहीं लिया. यह प्रदेश का पहला अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव था, तो कमियां भी दिखेंगी. लेकिन उत्तराखंड में सेब उत्पादन को लेकर अनुभव बेहद कड़वे हैं.

हिमाचल की पेटियों में सब बेचने को मजबूर काश्तकार: देश में सेब उत्पादन के लिए मुख्य तौर पर 2 राज्यों का नाम लिया जाता है, जिसमें पहला जम्मू-कश्मीर और दूसरा हिमाचल है, जबकि उत्तराखंड इस मामले में देश में तीसरा राज्य है, जहां सेब का उत्पादन सबसे ज्यादा होता है. इसके बावजूद गुणवत्ता युक्त सेब देने और इस क्षेत्र में अपना ब्रेंड तैयार करने में अब तक उत्तराखंड असफल ही दिखाई दिया है. हालत यह हैं कि कृषि मंत्री सुबोध उनियाल खुद कहते हैं कि प्रदेश का सेब हिमाचल की पेटियों में बेचा जाता है. यानी उत्तराखंड के सेब उत्पादकों को सरकार से इतनी भी मदद नहीं मिलती कि सेब की बेहतर मार्केटिंग की जा सके.

पढ़ें- महोत्सव में हिमाचल, कश्मीर और उत्तराखंड के सेबों का दबदबा, किसान हुए उत्साहित

सेब काश्तकारों को बढ़ावा देने का प्रयास नहीं: उत्तराखंड में करीब 57 हजार मीट्रिक टन सेब का उत्पादन होता है. प्रदेश में सबसे ज्यादा सेब उत्पादन उत्तरकाशी जिले में होता है, यहां अकेले करीब 20 हजार मीट्रिक टन से ज्यादा उत्पादन किया जाता है. उत्तराखंड राज्य स्थापना को 20 साल हो चुके हैं. लेकिन सेब काश्तकारों को बढ़ावा देने के लिए आज तक कोई प्रयास नहीं हुआ. जिसका नजीता ये हुआ कि उत्तराखंड में ना तो सेब की बेहतर पौध को लेकर कुछ हुआ और ना ही गुणवत्ता पर कोई काम हुआ.

हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिले को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी 11 जिलों में ज्यादा या कम मात्रा में सेब का उत्पादन किया जा रहा है. इतनी बड़ी मात्रा में उत्पादन होने के बावजूद भी उत्तराखंड सरकार में कभी सेब को लेकर ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई. यही कारण है कि मजबूरी में काश्तकारों को हिमाचल पेटियों में अपने सेब को बेचना पड़ता है. वैसे यह पहला मौका है जब राज्य सरकार ने उत्तराखंड के लिए 4 लाख पेटी की व्यवस्था की है, जिसमें प्रदेश का सेब प्रदेश के नाम से बाजारों तक पहुंच रहा है.

पढ़ें- देहरादून में शुरू हुआ पहला अंतरराष्ट्रीय एप्पल फेस्टिवल, CM धामी बोले- उत्पादन बढ़ेगा

ब्रांड के रूप में स्थापित होने के लिए उत्तराखंड का सेब: खास बात यह है कि वानिकी अनुसंधान के क्षेत्र में भी उत्तराखंड काफी पीछे रहा है. प्रदेश में सबसे बड़ा वानिकी से जुड़ा अनुसंधान विश्वविद्यालय होने के बावजूद भी सेब की बेहतर पद पर कुछ खास काम नहीं हो पाया है. हालांकि, अच्छी बात यह है कि अब इस दिशा में कुछ विचार जरूर किया जा रहा है.

उत्तराखंड सेब उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर स्थिति में पहुंच सकता था, बशर्ते राज्य सरकारें इससे जुड़े काश्तकारों को सुविधाएं प्रदान करती लेकिन 20 साल में ऐसा नहीं हुआ. लिहाजा, उत्तराखंड का सेब आज भी ब्रांड के रूप में स्थापित होने को तरस रहा है.

प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था नहीं: प्रदेश के कई जगहों पर कोल्ड स्टोरेज तक की व्यवस्था नहीं है. ऐसे में काश्तकारों का सेब कई बार खराब हो जाता है. इससे उन्हें भारी नुकसान भी होता है. दिक्कतें यहीं कम नहीं होतीं, सेब काश्तकारों को ऋण के रूप में बैंकों में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ता है. सरकारी मदद नहीं मिलने से भी काश्तकार इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रहे.

सेब काश्तकारों को उम्मीदेंः लाखों रुपये के इस अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में सेब काश्तकार उम्मीदें तो कई लगा रहे हैं. लेकिन यह उम्मीद है, तभी सफल हो पाएगी. जब इस क्षेत्र में प्रयासों को केवल बड़े कार्यक्रमों तक ही सीमित ना किया जाए. फिलहाल देश ही नहीं दुनिया की नजर कम क्षेत्र में ज्यादा उत्पादन और बेहतर गुणवत्ता के पौधे को तैयार करने की है. अगर राज्य सरकार भी इस दिशा में प्रयास करती है तो ही राज्य में सेब को नया आकार मिल सकेगा.

पढ़ें- उत्तराखंड में वोट बैंक का हिस्सा बनने तक सीमित 'आधी आबादी', टिकट देने में पार्टियां दिखीं कंजूस

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कुल करीब 24 लाख टन सेब का उत्पादन किया जाता है, जिसमें से 60% उत्पादन तो अकेले जम्मू-कश्मीर से होता है. इसके बाद हिमाचल भी करीब 30% उत्पादन करता है. बाकी उत्पादन उत्तराखंड और कुछ नार्थ ईस्ट के साथ बाकी राज्यों से होता है. उत्तराखंड में खास तौर पर देखें तो गोल्डन डिलीशियस और रेड डिलीशियस काफी बड़ी मात्रा में होता है.

वैसे प्रदेश में अब विदेशी पौध को भी लाकर तैयार किया जा रहा है, ताकि ऐसे सेब के पौधे लगाए जाए जो कम बड़े हो और उत्पादन ज्यादा दे. इसके लिए प्रदेश में डिलीशियस को छोड़कर स्पर प्रजाति के सेब को किसान ज्यादा महत्व दे रहे हैं.

काश्तकारों को ट्रांसपोर्ट और मार्केट की जरूरतः उत्तराखंड में सेब काश्तकारों के लिए उत्पाद को ट्रांसपोर्ट करने और उसके मार्केट की भी है. स्थानीय स्तर पर किसान के लिए राजधानी देहरादून या हिमाचल समेत बाकी राज्यों तक सेब को पहुंचना मुश्किल भी होता है और खर्चीला भी. ऐसे सेब काश्तकारों को इस काम के लिए सरकारी मदद की दरकार होती है, जो पिछले 20 सालों से नहीं मिली. उधर, सबसे महत्वपूर्ण बाजार उपलब्ध होना भी है.

अपना कोई ब्रेंड न होने से उत्तराखंड के सेब को बाजार तक पहुंचाना मुश्किल होता है. यही नहीं, किसानों को उन्नत खेती के लिए एक्सपर्ट जानकारी तक नहीं मिल पाती. विभाग के अधिकारी किसान तक पहुंचने के बजाय किसानों को ही देहरादून के चक्कर काटने होते हैं. ऊपर से किसानों को बिना नाम के इस सब के दाम भी सही नही मिल पाते हैं.

देहरादून: उत्तराखंड को हिमाचल और जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर सेब उत्पादन में नई पहचान दिलाने को सरकार प्रयासरत है. इसके लिए राज्य सरकार ने 24 से 26 सितंबर तक अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का आयोजन किया. सेब महोत्सव का आज आखिरी दिन था. उत्तराखंड में किसानों को फायदा पहुंचाने और सेब उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर स्थिति में लाने के लिए देहरादून में पहली बार अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का आयोजन किया गया. इस महोत्सव में किसानों को सेब उत्पादन और उनकी किस्मों के बारे में बारीकी से जानकारी भी दी गई.

महोत्सव में दिखीं सेब की 16 किस्में: अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव में न्यूजीलैंड, अमेरिका और चीन के सेब को प्रदर्शनी में रखा गया. वहीं, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की अलग-अलग किस्म को भी प्रदर्शनी में जगह दी गई. प्रदर्शनी में कुल 16 तरह के सेब की किस्म में मौजूद थी, जिसमें रेड डिलीशियस, रॉयल डिलीशियस, रेड गोल्ड, रिचए रेड, गोल्डन डिलीशियस, ऑर्गन स्पर, रेड चीफ, रेड फ्यूजी, गेल गाला, राइमर, ग्रैनी स्मिथ, सिल्वर स्पर, रेड वैलाक्सटार, क्रिम्सन सुपर, और चीफवांस डिलीशियस शामिल है.

सेब महोत्सव से उत्तराखंड के काश्तकारों को कितना लाभ?

देहरादून में कहने को तो अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव था लेकिन ये कुछ राज्यों तक ही सीमित रहा. जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश को छोड़ दे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सेब उत्पादन को लेकर किसी भी प्रतिनिधि ने हिस्सा नहीं लिया. यह प्रदेश का पहला अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव था, तो कमियां भी दिखेंगी. लेकिन उत्तराखंड में सेब उत्पादन को लेकर अनुभव बेहद कड़वे हैं.

हिमाचल की पेटियों में सब बेचने को मजबूर काश्तकार: देश में सेब उत्पादन के लिए मुख्य तौर पर 2 राज्यों का नाम लिया जाता है, जिसमें पहला जम्मू-कश्मीर और दूसरा हिमाचल है, जबकि उत्तराखंड इस मामले में देश में तीसरा राज्य है, जहां सेब का उत्पादन सबसे ज्यादा होता है. इसके बावजूद गुणवत्ता युक्त सेब देने और इस क्षेत्र में अपना ब्रेंड तैयार करने में अब तक उत्तराखंड असफल ही दिखाई दिया है. हालत यह हैं कि कृषि मंत्री सुबोध उनियाल खुद कहते हैं कि प्रदेश का सेब हिमाचल की पेटियों में बेचा जाता है. यानी उत्तराखंड के सेब उत्पादकों को सरकार से इतनी भी मदद नहीं मिलती कि सेब की बेहतर मार्केटिंग की जा सके.

पढ़ें- महोत्सव में हिमाचल, कश्मीर और उत्तराखंड के सेबों का दबदबा, किसान हुए उत्साहित

सेब काश्तकारों को बढ़ावा देने का प्रयास नहीं: उत्तराखंड में करीब 57 हजार मीट्रिक टन सेब का उत्पादन होता है. प्रदेश में सबसे ज्यादा सेब उत्पादन उत्तरकाशी जिले में होता है, यहां अकेले करीब 20 हजार मीट्रिक टन से ज्यादा उत्पादन किया जाता है. उत्तराखंड राज्य स्थापना को 20 साल हो चुके हैं. लेकिन सेब काश्तकारों को बढ़ावा देने के लिए आज तक कोई प्रयास नहीं हुआ. जिसका नजीता ये हुआ कि उत्तराखंड में ना तो सेब की बेहतर पौध को लेकर कुछ हुआ और ना ही गुणवत्ता पर कोई काम हुआ.

हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिले को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी 11 जिलों में ज्यादा या कम मात्रा में सेब का उत्पादन किया जा रहा है. इतनी बड़ी मात्रा में उत्पादन होने के बावजूद भी उत्तराखंड सरकार में कभी सेब को लेकर ज्यादा गंभीरता नहीं दिखाई. यही कारण है कि मजबूरी में काश्तकारों को हिमाचल पेटियों में अपने सेब को बेचना पड़ता है. वैसे यह पहला मौका है जब राज्य सरकार ने उत्तराखंड के लिए 4 लाख पेटी की व्यवस्था की है, जिसमें प्रदेश का सेब प्रदेश के नाम से बाजारों तक पहुंच रहा है.

पढ़ें- देहरादून में शुरू हुआ पहला अंतरराष्ट्रीय एप्पल फेस्टिवल, CM धामी बोले- उत्पादन बढ़ेगा

ब्रांड के रूप में स्थापित होने के लिए उत्तराखंड का सेब: खास बात यह है कि वानिकी अनुसंधान के क्षेत्र में भी उत्तराखंड काफी पीछे रहा है. प्रदेश में सबसे बड़ा वानिकी से जुड़ा अनुसंधान विश्वविद्यालय होने के बावजूद भी सेब की बेहतर पद पर कुछ खास काम नहीं हो पाया है. हालांकि, अच्छी बात यह है कि अब इस दिशा में कुछ विचार जरूर किया जा रहा है.

उत्तराखंड सेब उत्पादन के क्षेत्र में बेहतर स्थिति में पहुंच सकता था, बशर्ते राज्य सरकारें इससे जुड़े काश्तकारों को सुविधाएं प्रदान करती लेकिन 20 साल में ऐसा नहीं हुआ. लिहाजा, उत्तराखंड का सेब आज भी ब्रांड के रूप में स्थापित होने को तरस रहा है.

प्रदेश में कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था नहीं: प्रदेश के कई जगहों पर कोल्ड स्टोरेज तक की व्यवस्था नहीं है. ऐसे में काश्तकारों का सेब कई बार खराब हो जाता है. इससे उन्हें भारी नुकसान भी होता है. दिक्कतें यहीं कम नहीं होतीं, सेब काश्तकारों को ऋण के रूप में बैंकों में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ता है. सरकारी मदद नहीं मिलने से भी काश्तकार इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रहे.

सेब काश्तकारों को उम्मीदेंः लाखों रुपये के इस अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में सेब काश्तकार उम्मीदें तो कई लगा रहे हैं. लेकिन यह उम्मीद है, तभी सफल हो पाएगी. जब इस क्षेत्र में प्रयासों को केवल बड़े कार्यक्रमों तक ही सीमित ना किया जाए. फिलहाल देश ही नहीं दुनिया की नजर कम क्षेत्र में ज्यादा उत्पादन और बेहतर गुणवत्ता के पौधे को तैयार करने की है. अगर राज्य सरकार भी इस दिशा में प्रयास करती है तो ही राज्य में सेब को नया आकार मिल सकेगा.

पढ़ें- उत्तराखंड में वोट बैंक का हिस्सा बनने तक सीमित 'आधी आबादी', टिकट देने में पार्टियां दिखीं कंजूस

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कुल करीब 24 लाख टन सेब का उत्पादन किया जाता है, जिसमें से 60% उत्पादन तो अकेले जम्मू-कश्मीर से होता है. इसके बाद हिमाचल भी करीब 30% उत्पादन करता है. बाकी उत्पादन उत्तराखंड और कुछ नार्थ ईस्ट के साथ बाकी राज्यों से होता है. उत्तराखंड में खास तौर पर देखें तो गोल्डन डिलीशियस और रेड डिलीशियस काफी बड़ी मात्रा में होता है.

वैसे प्रदेश में अब विदेशी पौध को भी लाकर तैयार किया जा रहा है, ताकि ऐसे सेब के पौधे लगाए जाए जो कम बड़े हो और उत्पादन ज्यादा दे. इसके लिए प्रदेश में डिलीशियस को छोड़कर स्पर प्रजाति के सेब को किसान ज्यादा महत्व दे रहे हैं.

काश्तकारों को ट्रांसपोर्ट और मार्केट की जरूरतः उत्तराखंड में सेब काश्तकारों के लिए उत्पाद को ट्रांसपोर्ट करने और उसके मार्केट की भी है. स्थानीय स्तर पर किसान के लिए राजधानी देहरादून या हिमाचल समेत बाकी राज्यों तक सेब को पहुंचना मुश्किल भी होता है और खर्चीला भी. ऐसे सेब काश्तकारों को इस काम के लिए सरकारी मदद की दरकार होती है, जो पिछले 20 सालों से नहीं मिली. उधर, सबसे महत्वपूर्ण बाजार उपलब्ध होना भी है.

अपना कोई ब्रेंड न होने से उत्तराखंड के सेब को बाजार तक पहुंचाना मुश्किल होता है. यही नहीं, किसानों को उन्नत खेती के लिए एक्सपर्ट जानकारी तक नहीं मिल पाती. विभाग के अधिकारी किसान तक पहुंचने के बजाय किसानों को ही देहरादून के चक्कर काटने होते हैं. ऊपर से किसानों को बिना नाम के इस सब के दाम भी सही नही मिल पाते हैं.

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