देहरादून: कभी देहरादून में डोईवाला से लेकर सहसपुर और विकासनगर तक तकरीबन 50 किलोमीटर की बेल्ट में मशहूर बासमती चावल उगाया जाता था. यह चावल पूरी दुनिया में अपनी विशेष पहचान रखा था, लेकिन अब बीतते दिनों के साथ दून घाटी कंक्रीट में तब्दील होती जा रही है. जिसके चलते दून घाटी का 50 फीसदी से ज्यादा कृषि क्षेत्र खत्म हो चुका है. ऐसे में इसी बचे हुए कृषि क्षेत्र के नाम मात्र जगहों पर बासमती चावल का उत्पादन किया जा रहा है.
देहरादून की बासमती आज बाजार में दुर्लभ होती जा रही है. दुर्लभ होती जा रही देहरादून की इस बासमती को बाजार में जिंदा रखने का काम कर गिने चुने लोग ही कर रहे हैं. जिनमें देहरादून के आशीष राजवंशी शामिल हैं. आशीष बताते हैं कि आज देहरादून की बासमती के नाम को हरियाणा और पंजाब के लोग इस्तेमाल कर रहे हैं. इसके साथ इस चावल की क्वालिटी भी आज खराब हो रही है. चावल की खेती लगातार कम होती जा रही है.
सिमट रहा देहरादून में बासमती उत्पादन का क्षेत्र: देहरादून की बासमती चावल को इंटरनेशनल मार्केट के लिए तैयार कर रहे आशीष राजवंशी ने बताया कि देहरादून में बासमती उगाना उनका पारंपरिक व्यवसाय है. वो बीते 40 सालों से विशुद्ध रूप से देहरादून में बासमती के उत्पादन का कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि उनके सामने आज बासमती उत्पादन का कृषि क्षेत्र सिमटता जा रहा है.
उन्होंने कोरोनाकाल के बाद अपने इस पारंपरिक उत्पाद की मार्केटिंग शुरू की. उन्होंने बताया कि आज जितना भी उपलब्ध हो पाता है, वो इसे ऑल ओवर इंडिया में सप्लाई कर रहे हैं. जो इस बासमती चावल की परख रखता है, उसको इसकी अहमियत पता है. यही वजह है कि आज उनके चावल के अच्छे ग्राहक मार्केट में मौजूद हैं.
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अफगानिस्तान से आया बासमती, दून में आकर हो गया खास: बताया जाता है कि जब भारत संयुक्त रूप से एक था तो उस समय अफगानिस्तान के कुछ शासक देहरादून आए थे. वो अपने साथ अफगानिस्तान से बासमती के कुछ बीज भी लेकर आए थे. उन्होंने ही दून घाटी में पहली बार बासमती चावल को उगाया था. जो धीरे-धीरे पूरे दून घाटी में फैल गया.
बासमती का उत्पादन करने वाले आशीष राजवंशी बताते हैं कि देहरादून का यह बासमती इसलिए अपनी एक अलग विशेष पहचान रखता है. क्योंकि, यह पूरी तरह से नदी के पानी में उगाया जाता है. यानी दून घाटी के दोनों तरफ बहने वाली गंगा और यमुना से सिंचित भूमि पर ही देहरादून की बासमती की पैदावार की जाती है.
देहरादून की बासमती चावल के स्वाद की पीछे की वजह: इसकी विशेषता ये है कि उच्च हिमालयी क्षेत्र से आने वाले नदियों के साथ बहाकर आने वाले खनिज तत्वों से सिंचित जल में उगाई जाती है. इसलिए इसका स्वाद और गुण अपने आप में खास होता है. दून घाटी से बाहर हरियाणा और पंजाब क्षेत्र में सिंचाई भूमिगत जल से आपूर्ति की जाती है, जिस वजह से वहां पर देहरादून की बासमती का मुकाबला नहीं हो पता है.
एक्सपोर्ट के लिए पर्याप्त नहीं देहरादून का बासमती, सिर्फ 10 टन होता है सालाना उत्पादन: बासमती चावल उत्पादक आशीष राजवंशी बताते हैं कि प्रोक्योरमेंट के नाम पर देहरादून में बासमती ना के बराबर है. सालाना 10 टन ही उत्पादन कर पा रहे हैं. इस तरह से सालाना उत्पादन होने वाला 10 टन बासमती चावल पहले ही घरेलू बाजार में खप जाता है.
उन्होंने बताया कि वो ₹200 प्रति किलो के हिसाब से इसे बेचते हैं. उसके बाद इसे ₹200 से ऊपर तकरीबन 500 से लेकर 600 रुपए तक रिटेल कंपनी मार्केट में इसे बेच रही है. आशीष बताते हैं कि आज जमीन सारी बिक चुकी है और जमीनों पर निर्माण कार्य तेजी से हो रहे हैं.
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ऐसे में कृषि योग्य भूमि ना होने के चलते देहरादून की बासमती का इतना उत्पादन नहीं हो पा रहा है कि उसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक्सपोर्ट किया जा सके. यही वजह है कि यह बासमती आज बाजार में दुर्लभ होता जा रहा है. उन्होंने कहा कि देहरादून की जमीनों का इसी तरह से खुद बुर्द होता रहा तो आज से 4 या 5 साल बाद देहरादून का बासमती केवल नाम के लिए रह जाएगा.
विदेश में एक्सपोर्ट के लिए 25 टन की होती है जरूरत, यहां हो रहा 10 टन का उत्पादन: वहीं, डीएमएन इंटरप्राइजेज के प्रतिनिधि ने बताया कि आज उत्तराखंड के प्रोडक्ट की अंतरराष्ट्रीय मार्केट में काफी ज्यादा डिमांड है. देहरादून के बासमती की अपनी विशेष खासियत है. उन्हें यह काफी पसंद है, लेकिन एक्सपोर्ट की बात की जाए तो एक बार में एक्सपोर्ट करने के लिए कम से कम एक कंटेनर यानी 25 टन की जरूरत होती है, लेकिन उसे मुताबिक अभी इसका उत्पादन यहां पर नहीं हो पा रहा है.