चमोली: उत्तराखंड के चमोली जिले में एक मंदिर ऐसा है, जो अपनी खूबसूरती के साथ निसंतान दंपतियों की मनोकामना पूरी करने के लिए देशभर में पहचान रखता है. दिसंबर में यहां दो दिवसीय मेले का आयोजन होता है. इस दौरान बड़ी संख्या में निसंतान दंपति यहां पहुंचते हैं. हम बात कर रहे हैं माता अनुसूया मंदिर की.
चमोली जिले के मंडल घाटी के घने जंगलों के बीच माता अनुसूया का भव्य मंदिर है. यह मंदिर जिला मुख्यालय गोपेश्वर से 10 किलोमीटर की दूरी पर मंडल गांव में है. मंडल गांव से 5 किलोमीटर की पैदल दूरी तय करने बाद अनुसूया मंदिर पहुंचा जाता है. यहां हर साल दिसंबर में दो दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है. इस बार शुक्रवार को इस मेले का आयोजन किया गया, जिसमें बड़ी संख्य में श्रद्धालु और निसंतान दंपती पहुंचे.
यहां निसंतान महिलाओं ने रात भर संतान प्राप्ति के लिए मंदिर में मां अनुसूया की आराधना की. संतान कामना की आस को लेकर यहां पहुंचने वाली महिलाओं को बरोही कहा जाता है. मान्यता है कि जिस महिला की गोद हरी होनी रहती है, उन्हें माता अनुसूया मंदिर के अंदर ही स्वप्न में दर्शन देती हैं, जिसके बाद महिलाओं को तत्काल स्नान करने के बाद मंदिर में ही कीर्तन भजन करना होता है. प्रात: काल में पुजारी महिलाओं को प्रसाद के रूप में श्रीफल देते हैं.
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इस साल भी उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों से अलावा उत्तर प्रदेश, चंडीगढ़ और दिल्ली समेत कई राज्यों से संतानकामना के लिए करीब 327 निसंतान दंपतियों ने पंजीकरण करवाया था. मां अनुसूया के मंदिर से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर अत्रि मुनि गुफा भी स्थित है. शनिवार को अनुसूया मंदिर से देव डोलियां वापस मंडल गांव आने के बाद मंडल गांव और अनुसूया माता मंदिर में लगने वाले मेले का समापन हो गया है. इस साल करीब 5 हजार श्रद्धालु अनुसूया माता मंदिर पहुंचे थे.
ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने ली थी माता की परीक्षा: मान्यता है कि यह स्थान बदरी और केदारनाथ के बीच स्थित है. महर्षि अत्रि मुनि की पत्नी अनुसूया की महिमा जब तीनों लोक में होने लगी तो पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के अनुरोध पर परीक्षा लेने ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथ्वीलोक पहुंचे थे. इसके बाद साधु भेष में तीनों ने अनुसूया के सामने निर्वस्त्र होकर भोजन कराने की शर्त रखी थी. दुविधा की इस घड़ी में जब माता ने अपने पति अत्रि मुनि का स्मरण किया तो सामने खड़े साधुओं के रूप में उन्हें ब्रह्मा विष्णु और महेश खड़े दिखाई दिए. इसके बाद उन्होंने अपने कमंडल से जल निकालकर तीनों साधुओं पर छिड़का तो वह छह महीने के शिशु बन गए थे.
इसके बाद माता ने शर्त के मुताबिक न सिर्फ उन्हें भोजन कराया बल्कि स्तनपान भी कराया था. वहीं, पति के वियोग में तीनों देवियां दुखी होने के बाद पृथ्वीलोक पहुंचीं और माता अनुसूया से क्षमा याचना की. फिर तीनों देवों ने भी अपनी गलती को स्वीकार कर माता की कोख से जन्म लेने का आग्रह किया. यही नहीं माता को दो वरदान दिए. इससे उन्हें दत्तात्रेय, दुर्वासा ऋषि और चंद्रमा का जन्म हुआ, तो दूसरा वरदान माता को किसी भी युग में निसंतान दंपित की कोख भरने का दिया. यही वजह है कि यहां जो कोई भी संतान की कामना के लिए आता है, वह खाली हाथ नहीं रहता.
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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: प्राचीन काल में यहां देवी अनुसूया का छोटा सा मंदिर था. सत्रहवीं सदी में कत्यूरी राजाओं ने इस स्थान पर अनुसूया देवी के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया. अट्ठारहवीं सदी में आए विनाशकारी भूकंप से यह मंदिर ध्वस्त हो गया. इसके बाद संत ऐत्वारगिरी महाराज ने ग्रामीणों की मदद से इस मंदिर का पुन: निर्माण करवाया.
नवरात्र में अनुसूया देवी के मंदिर में नौ दिन तक मंडल घाटी के ग्रामीण मां का पूजन करते हैं. इस मंदिर की विशेषता यह है कि दूसरे मंदिरों की तरह यहां पर बलि प्रथा का प्रावधान नहीं है. यहां श्रद्धालुओं को विशेष प्रसाद दिया जाता है. यह स्थानीय स्तर पर उगाए गए गेहूं के आटे का होता है.
कैसे पहुंचें: चमोली जिले की मंडल घाटी तक वाहन से आप पहुंच सकते हैं. इसके बाद अनुसूया मंदिर तक पहुंचने के लिए आपको पैदल यात्रा करनी होगी. अगर आप उत्तराखंड के बाहर से आ रहे हैं तो ऋषिकेश तक ट्रेन, बस और फ्लाइट से पहुंच सकते हैं. इसके बाद श्रीनगर के रास्ते चमोली जिले के गोपेश्वर से होते हुए मंडल तक बस और टैक्सी से पहुंच सकते हैं. फिर मंडल से माता के मंदिर तक पांच किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई है. प्रकृति की गोद में बसा यह स्थान चारों ओर से ऊंची-ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं से सुशोभित है. इसके नजदीक ही अत्रि मुनि का आश्रम स्थित है, जो कि अमृत गंगा का उद्गम स्थल भी है.
कौन थे अत्रि मुनि: सृष्टि वर्धन के उद्देश्य से ब्रह्माजी ने जिन सात मानस पुत्रों को उत्पन्न किया, उनमें से एक महर्षि अत्रि हैं. महर्षि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के नेत्र या मस्तक से हुआ. हरिवंश पुराण के अनुसार प्रजासर्ग की कामना से महातेजस्वी ब्रह्मा से उत्पन्न पुत्रों के नाम थे- मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वशिष्ठ और कौशिक. ये सब ब्रह्माजी के मानस पुत्र कहलाये. इन्हें सप्तऋषि भी कहा जाता है. इन्हीं महर्षियों ने समस्त जगत को उत्पन्न किया और सृष्टि वर्धन की. इनके नाम से भिन्न-भिन्न वंश और गोत्र प्रचलित हुए.
अत्रि ब्रह्मा के दूसरे मानस-पुत्र थे. महर्षि अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र का प्रादुर्भाव हुआ. महर्षि अत्रि के एक पुत्र नाम था चंद्रमा. चंद्रमा से चद्रवंश चला और उनके वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये. इसी वंश में आगे चलकर कई पीढ़ियों के बाद महाराज यदु का जन्म हुआ. यदु से यादव वंश चला. यादव कुल में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए और वे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये. महर्षि अत्रि के कुल में उत्पन्न होने से यदुवंशिवों का ऋषि-गोत्र "अत्रि" माना जाता है और चन्द्रमा के वंशज होने के कारण ही वे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहे जाते हैं.
महर्षि अत्रि एक वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि थे. उनकी गणना सप्तर्षियों में होती है. वैवस्वत मन्वन्तर में वे एक प्रजापति भी थे. इनकी पत्नी का नाम अनुसूया था. अनुसूया कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री थीं. महर्षि अत्रि अपने नाम के अनुसार त्रिगुणातीत परम भक्त थे. अनुसूया भी भक्तिमती थीं. वे दिव्यतेज से संपन्न परम पतिव्रता और महान देवी थीं. वे चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे. एक बार भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता के साथ स्वयं उनके आश्रम पधारे. तब देवी अनुसूया ने माता सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था.
ब्रह्मा जी ने जब इस दम्पति को सृष्टि-वर्धन की आज्ञा दी तो इन्होंने सृष्टि-वर्धन से पहले तपस्या करने का निश्चय किया. श्रद्धा पूर्वक साधना करते हुए उन्होंने दीर्घकाल तक घोर तपस्या की. इससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा-विष्णु और महेश तीनों देवता प्रत्यक्ष रूप से उनके समक्ष उपस्थित हुए और वरदान मांगने को कहा. त्रिदेवों को अपने समक्ष आया देखकर अत्रि दम्पति का हृदय आनंद से भर गया.
ये भी एक मान्यता है: ब्रह्मा जी ने अत्रि दम्पति को सृष्टि-वर्धन आज्ञा दी थी, और वे ही सामने खड़े वर मांगने को कह रहे थे. तब अत्रि जी ने कोई और वरदान न मांगकर उन्हीं तीनों को पुत्र के रूप में माँग लिया. उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई. त्रिदेवों ने सहर्ष 'एवमस्तु" कहा और अंतर्धान हो गए. समय बीतने के साथ तीनों देवों ने महर्षि के पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण किया. विष्णु के अंश से उत्पन्न पुत्र का नाम था दत्रात्रेय, ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न पुत्र का नाम "चंद्रमा" और भगवान शंकर के अंश से उत्पन्न पुत्र का नाम "दुर्वासा" हुआ.