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बालपाटा और वेदनी में नंदा लोकजात यात्रा संपन्न, कैलाश के लिए विदा हुईं मां नंदा

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Published : Sep 13, 2021, 9:29 PM IST

चमोली में वेदनी और बालपाटा बुग्याल में विशेष पूजा-अर्चना के साथ नंदा लोकजात यात्रा संपन्न हो गई है. वहीं, पूजा-अर्चना के बाद मां नंदा को कैलाश विदा कर भक्तगण वापस लौट आए.

nanda lokjat yatra
नंदा लोकजात

चमोलीः ऐतिहासिक मां नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा संपन्न हो गई है. वेदनी और बालपाट बुग्याल में नंदा सप्तमी की विशेष पूजा-अनुष्ठान का आयोजन किया गया. जिसके बाद मां नंदा कैलाश के लिए विदा हुई. मां नंदा को विदाई के वक्त ग्रामीणों की आखें छलक गईं. वहीं, दूसरी ओर बंड क्षेत्र से आयोजित होने वाली लोकजात में नरेला बुग्याल में पूजा-अर्चना की गई.

आज मां नंदा राज राजेश्वरी की डोली सुबह गैरोली पातल में प्रातःकालीन पूजा-अर्चना के बाद वेदनी बुग्याल पहुंची. जहां देवी के पुजारियों ने नंदा सप्तमी की विशेष पूजा-अर्चना के बाद मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया. जिसके बाद राज राजेश्वरी नंदा ल्वांणी, उलंग्रा, बैराधार, गोठिना, कुराड और डांगतोली होते हुए अपने ननिहाल देवराडा गांव पहुंचेगी. जहां देवी आगामी छह महीने तक प्रवास के बाद सिद्धपीठ कुरुड़ लौटेगी.

कैलाश के लिए विदा हुईं मां नंदा

ये भी पढ़ेंः थराली पहुंची मां नंदा की डोली, भक्तों ने पुष्प वर्षा कर स्वागत किया

दूसरी ओर दशोली कुरुड़ की डोली रामणी गांव में पूजा-अर्चना के बाद बालपाटा बुग्याल पहुंची. बालपाटा बुग्याल में मां नंदा की पूजा-अर्चना करने के बाद जहां मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया गया. वहीं, पूजा-अर्चना के बाद राज राजेश्वरी नंदा की डोली अपने रात्रि प्रवास के लिए मथकोट गांव पहुंच गई है. बता दें कि चमोली के बालपाटा में भी लोकजात आयोजित होती है.

नंदादेवी लोकजात और राजजात में अंतरः मां नंदा लोकजात यात्रा का आयोजन हर साल आयोजित होता है. जो हर साल कुरुड़ मंदिर से आयोजन किया जाता है. इस साल भी कोविड नियमों को मद्देनजर रखते हुए नंदा लोकजात का आयोजन किया गया. नंदा सप्तमी के दिन कैलाश में मां नंदादेवी की पूजा-अर्चना के साथ लोकजात का विधिवत समापन हो गया है. जबकि, राजजात हर बारह साल में आयोजित की जाती है.

नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व: 7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.

ये भी पढ़ेंः रहस्यमयी है देवभूमि का लाटू देवता मंदिर, केवल 8 महीने होती है पूजा

कथा के अनुसार, नंदा के मायके वाले नंदा को कैलाश विदा करने जाते थे और फिर वापस लौटते थे. भगवान शिव नंदा के पति हैं. यह राजजात यात्रा बारह साल में एक बार होती थी. इससे जाहिर होता है‍ कि नंदा अपने मायके हर बारह साल में आती थीं. यह परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है और आज भी पहाड़ के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं. इससे पहले यह राज जात यात्रा वर्ष 2000 में हुई थी.

यात्रा में चौसिंगा खाडू का महत्वः चौसिंगा खाड़ू (चार सींग वाला काले रंग का भेड़) नंदा राजजात की अगुवाई करता है. मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाड़ू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है. राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाड़ू की पीठ पर फांची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाड़ू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है.

ये भी पढ़ेंः चमोली: मां नंदा की डोली लेकर उफनती नदी पार कर रहे श्रद्धालु

सिद्धपीठ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाड़ू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं.

यात्रा के पड़ावः यात्रा का शुभारंभ स्थल नौटी है. नौटी से शुरू होने वाली नंदादेवी राजजात में 20 पड़ाव हैं. इसमें बाण तक ग्रामीण अंचल हैं. नौटी से लेकर बाण तक भक्त गांवों की परंपरा से भी अवगत हो सकेंगे. असली यात्रा बाण गांव के बाद होती है. इस गांव के बाद यात्रा घने जंगलों के बीच से बढ़ती है. रोमांच से भरी यह यात्रा प्राकृतिक सौंदर्य से भी भक्तों को रूबरू करवाती है. नंदादेवी राजजात यात्रा के पड़ावों में वेदनी बुग्याल, वेदनी कुंड, राज्यपुष्प ब्रह्मकल और राज्य पक्षी मोनाल सहित अनेक जड़ी-बूटियां देखने को मिलते हैं.

चमोलीः ऐतिहासिक मां नंदा की वार्षिक लोकजात यात्रा संपन्न हो गई है. वेदनी और बालपाट बुग्याल में नंदा सप्तमी की विशेष पूजा-अनुष्ठान का आयोजन किया गया. जिसके बाद मां नंदा कैलाश के लिए विदा हुई. मां नंदा को विदाई के वक्त ग्रामीणों की आखें छलक गईं. वहीं, दूसरी ओर बंड क्षेत्र से आयोजित होने वाली लोकजात में नरेला बुग्याल में पूजा-अर्चना की गई.

आज मां नंदा राज राजेश्वरी की डोली सुबह गैरोली पातल में प्रातःकालीन पूजा-अर्चना के बाद वेदनी बुग्याल पहुंची. जहां देवी के पुजारियों ने नंदा सप्तमी की विशेष पूजा-अर्चना के बाद मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया. जिसके बाद राज राजेश्वरी नंदा ल्वांणी, उलंग्रा, बैराधार, गोठिना, कुराड और डांगतोली होते हुए अपने ननिहाल देवराडा गांव पहुंचेगी. जहां देवी आगामी छह महीने तक प्रवास के बाद सिद्धपीठ कुरुड़ लौटेगी.

कैलाश के लिए विदा हुईं मां नंदा

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दूसरी ओर दशोली कुरुड़ की डोली रामणी गांव में पूजा-अर्चना के बाद बालपाटा बुग्याल पहुंची. बालपाटा बुग्याल में मां नंदा की पूजा-अर्चना करने के बाद जहां मां नंदा को कैलाश के लिए विदा किया गया. वहीं, पूजा-अर्चना के बाद राज राजेश्वरी नंदा की डोली अपने रात्रि प्रवास के लिए मथकोट गांव पहुंच गई है. बता दें कि चमोली के बालपाटा में भी लोकजात आयोजित होती है.

नंदादेवी लोकजात और राजजात में अंतरः मां नंदा लोकजात यात्रा का आयोजन हर साल आयोजित होता है. जो हर साल कुरुड़ मंदिर से आयोजन किया जाता है. इस साल भी कोविड नियमों को मद्देनजर रखते हुए नंदा लोकजात का आयोजन किया गया. नंदा सप्तमी के दिन कैलाश में मां नंदादेवी की पूजा-अर्चना के साथ लोकजात का विधिवत समापन हो गया है. जबकि, राजजात हर बारह साल में आयोजित की जाती है.

नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व: 7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.

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कथा के अनुसार, नंदा के मायके वाले नंदा को कैलाश विदा करने जाते थे और फिर वापस लौटते थे. भगवान शिव नंदा के पति हैं. यह राजजात यात्रा बारह साल में एक बार होती थी. इससे जाहिर होता है‍ कि नंदा अपने मायके हर बारह साल में आती थीं. यह परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है और आज भी पहाड़ के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं. इससे पहले यह राज जात यात्रा वर्ष 2000 में हुई थी.

यात्रा में चौसिंगा खाडू का महत्वः चौसिंगा खाड़ू (चार सींग वाला काले रंग का भेड़) नंदा राजजात की अगुवाई करता है. मनौती के बाद पैदा हुए चौसिंगा खाड़ू को ही यात्रा में शामिल किया जाता है. राजजात के शुभारंभ पर नौटी में विशेष पूजा-अर्चना के साथ इस खाड़ू की पीठ पर फांची (पोटली) बांधी जाती है, जिसमें मां नंदा की श्रृंगार सामग्री सहित देवी भक्तों की भेंट होती है. खाड़ू पूरी यात्रा की अगुवाई करता है.

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सिद्धपीठ नौटी में भगवती नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण प्रतिष्ठा के साथ रिंगाल की पवित्र राज छंतोली और चार सींग वाले भेड़ (खाड़ू) की विशेष पूजा की जाती है. कांसुवा के राजवंशी कुंवर यहां यात्रा के शुभारंभ और सफलता का संकल्प लेते हैं. मां भगवती को देवी भक्त आभूषण, वस्त्र, उपहार, मिष्ठान आदि देकर हिमालय के लिए विदा करते हैं.

यात्रा के पड़ावः यात्रा का शुभारंभ स्थल नौटी है. नौटी से शुरू होने वाली नंदादेवी राजजात में 20 पड़ाव हैं. इसमें बाण तक ग्रामीण अंचल हैं. नौटी से लेकर बाण तक भक्त गांवों की परंपरा से भी अवगत हो सकेंगे. असली यात्रा बाण गांव के बाद होती है. इस गांव के बाद यात्रा घने जंगलों के बीच से बढ़ती है. रोमांच से भरी यह यात्रा प्राकृतिक सौंदर्य से भी भक्तों को रूबरू करवाती है. नंदादेवी राजजात यात्रा के पड़ावों में वेदनी बुग्याल, वेदनी कुंड, राज्यपुष्प ब्रह्मकल और राज्य पक्षी मोनाल सहित अनेक जड़ी-बूटियां देखने को मिलते हैं.

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