अल्मोड़ा: भारत संस्कृति और सनातन धर्म का विजय पताका पूरे विश्व मे फहराने वाले स्वामी विवेकानंद का अल्मोड़ा से विशेष लगाव था. स्वामी विवेकानंद अपने जीवन काल में तीन बार अल्मोड़ा भ्रमण पर आये थे. उनकी यादें आज भी अल्मोड़ा से जुड़ी हुई हैं. अल्मोड़ा शहर के करबला स्थित विवेकानंद मेमोरियल रेस्ट हॉल आज भी विवेकानंद की यादों को ताजा करता है. जहां विवेकानंद को एक मुस्लिम फकीर ने ककड़ी खिलाई थी.
जानकारी के अनुसार विवेकानंद जब पहली बार 1890 में कुमाऊं भ्रमण पर आए थे, तो वे सबसे पहले अल्मोड़ा के काकड़ीघाट नामक जगह पर पहुंचे. जानकार बताते हैं कि स्वामी विवेकानंद वहां से पैदल अल्मोड़ा शहर की ओर गये. लेकिन करबला नामक एक जगह पर स्वामी विवेकानंद भूख और प्यास से मूर्छित होकर एक पत्थर पर सो गए. उनके साथ उनके शिष्य स्वामी अखंडानंद भी मौजूद थे.
रामकृष्ण कुटीर के संत स्वामी परानाथ बताते हैं कि उनकी इस हालात को देखते हुए कब्रिस्तान के एक मुस्लिम फकीर ने उन्हें ककड़ी खिलाई. जिसके बाद स्वामी विवेकानंद की हालत में सुधार आया. जिसके बाद स्वामी विवेकानंद वहां से अपने मित्र बद्री शाह के घर पर गये और करीब एक हफ्ते तक रुके.
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1897 में जब दूसरी बार स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा पहुंचे तो वहां उनका भव्य स्वागत किया गया. उनके उस अभिनंदन समारोह में वह मुस्लिम फकीर भी आया हुआ था, जिसने ककड़ी खिलाकर उनकी जान बचाई थी. जिसे स्वामी विवेकानंद ने देखते ही पहचान लिया. इसके बाद विवेकानंद उस फकीर के पास गए और बड़े ही प्यार से उसे दो रुपये इनाम दिया.
स्वामी परानाथ बताते हैं कि 1897 की अल्मोड़ा यात्रा के दौरान विवेकानंद ने शहर के कई जगहों पर अपने व्याख्यान दिए. जिसमें विवेकानंद ने कहा था कि यह हमारे पूर्वजों के सपनों का प्रदेश है. उन्होंने इस भूमि को पवित्र बताते हुए कहा था कि इस पवित्र भूमि में निवास करने की कल्पना उनकी बाल्यकाल से ही रही है. जिसके बाद 1916 में स्वामी विवेकानंद के शिष्यों स्वामी तुरियानंद और स्वामी शिवानंद ने अल्मोड़ा के ब्राइट एंड कार्नर में एक केंद्र स्थापित किया. जिसे आज रामकृष्ण कुटीर नाम से जाना जाता है.
महान दार्शनिक थे स्वामी विवेकानंद
महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद ने भारत के उत्थान में अहम भूमिका निभाई थी. स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था. उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त था. बेहद कम उम्र में ही उन्होंने वेद और दर्शन शास्त्र का ज्ञान हासिल कर लिया था. उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील थे. उनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था.
साल 1884 में पिता की मौत के बाद परिवार की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आ गई. 25 साल की उम्र में अपने गुरु से प्रेरित होकर उन्होंने सांसारिक मोह-माया त्याग दी और संन्यासी बन गए.अमरीका के शिकागो की धर्म संसद में साल 1893 में दिए गया उनका भाषण आज भी प्रासंगिक है.